हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 80-96 का हिन्दी अनुवाद'प्रभो! आपको छोड़कर दूसरे कोई देवता अथवा भूतल के नरेश अर्जुन के अस्त्र-मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकेंगे। उसमें जो धनुष चलाने की फुर्ती है, उसके द्वारा भी कोई उसकी समानता नहीं कर सकता। गोविन्द! युद्ध के अवसरों पर अर्जुन आपका सच्चा बन्धु एवं सहायक होगा। मेरे लिये अथवा मेरे कहने से आपको उसे अध्यात्म विद्या का उपदेश अवश्य करना चाहिये। आप अर्जुन को उसी तरह अपनापन की दृष्टि से देखें, जैसा मुझे देखा करते हैं। प्रतिदिन उसका आदर करते रहें। आप ही सम्पूर्ण लोकों के ज्ञाता हैं, अत: अर्जुन का भी सदा ध्यान रखें। बड़े-बड़े युद्ध के अवसरों पर भी आपको नित्य प्रति उसकी रक्षा करनी चाहिये। आप से सुरक्षित हुए अर्जुन पर मृत्यु का वश नहीं चल सकेगा। श्रीकृष्ण! आप अर्जुन को मेरा ही स्वरूप समझें और मुझे भी हृदय से अपना आत्मा स्वीकार करें। जैसे मैं सदा ही अापकी आत्मा हूँ, उसी प्रकार वह अर्जुन भी आपकी आत्मा ही है। पूर्वकाल में आपने तीन पगों द्वारा इन तीनों लोकों को नापकर बलि के हाथ से अपने अधिकार में ले लिया और मुझे ही अपना बड़ा भाई मानकर देवताओं का राजा बना दिया। आप सत्यमय हैं, सत्यरूपी यज्ञ द्वारा आपका यजन हुआ है तथा आप सत्य पराक्रमी हैं, ऐसा जानकर देवता लोग सत्यभाव से ही आपकी शरण में आते और आपको शत्रु-संहार के कार्य में लगाते हैं। अर्जुन नाम से प्रसिद्ध मेरा पुत्र आपके पिता की बहिन (बुआ) का बेटा है। वह इस जगत में आपका सहचर होकर आपके साथ पूर्ण सौहार्द स्थापित करे। श्रीकृष्ण! वह युद्ध कर रहा हो, अपने स्थान पर हो अथवा घर में बैठा हो, आपको बलिष्ठ वृषभ की भाँति सदा उसका भार सँभालना चाहिये। युद्ध के मुहाने पर तो सदा ही आपको उसकी रक्षा का बोझ उठाना है। श्रीकृष्ण! आप तो भविष्य में होने वाली घटनाओं को भी प्रत्यक्ष की भाँति देखने वाले हैं (अत: आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है)। जब कंस आपके द्वारा मार डाला जायगा, तब सब ओर से आये हुए राजाओं का वह महान युद्ध (महाभारत) होगा। उस युद्ध में अतिमानव (अलौकिक) कर्म करने वाले उन नरवीर राजाओं को जीतकर अर्जुन विजय-सुख का उपभोग करेगा और आप महान सुयश के भागी होंगे। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले श्रीकृष्ण! यदि मैं, सम्पूर्ण देवता तथा सत्य आपको प्रिय हैं तो मैंने जो कुछ यहाँ कहा है वह सब कार्य आपको पूर्ण करना चाहिये।' इन्द्र का यह वचन सुनकर ‘गोविन्द’ भाव को प्राप्त हुए श्रीकृष्ण ने प्रसन्न मन से युक्त होकर इस प्रकार उत्तर दिया- 'देव! शचीवल्लभ शक्र! मैं तो आपके दर्शन से ही प्रसन्न हो गया हूँ। आपने यह जो कुछ कहा है, वह सब पूरा किया जायगा; कुछ भी छोड़ा नहीं जायगा। आपका मेरे प्रति जो भाव है, उसे मैं जानता हूँ। मुझे अर्जुन के जन्म का भी पता है। महात्मा पाण्डु के साथ जिनका विवाह हुआ, उन अपनी बुआ कुन्ती को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ। धर्म के द्वारा उत्पन्न हुए कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से भी मैं परिचित हूँ। वायु की सन्तान होकर उत्पन्न हुए अपनी बुआ के बेटे भीमसेन को भी मैं जानता हूँ। दोनों अश्विनी कुमारों ने जिन दो शुभलक्षण पुत्रों की सृष्टि की है तथा जो माद्री के गर्भ में रह चुके हैं, उन दोनों भाई नकुल और सहदेव के विषय में भी मैं भली-भाँति जानकारी रखता हूँ।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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