हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 60-79 का हिन्दी अनुवादजो मानव हम दोनों से सम्बन्ध रखने वाले इस सनातन आचार (महेन्द्रोपेन्द्र मुख नामक उत्सव)- में हमें प्रणाम करेंगे, उन्हें कभी अनीति का सामना नहीं करना पड़ेगा। तदनन्तर योगवेत्ता इन्द्र ने दिव्य (मन्दाकिनी का) जल धारण करने वाले उन कलशों को हाथ में लेकर भगवान श्रीकृष्ण का ‘गोविन्द (गौओं के इन्द्र)’- पद पर अभिषेक किया। (इन्द्र द्वारा) उनका अभिषेक हुआ देख यूथपतियों (सांड़ों) सहित उन दिव्य गौओं ने भी दूध की धारा बहाते हुए अपने थनों द्वारा अविनाशी श्रीकृष्ण का अभिषेचन किया। इसके बाद मेघों ने भी आकाश में छोड़ी हुई अमृतयुक्त धाराओं द्वारा श्रीकृष्ण को सब ओर से नहलाकर उन अविनाशी ईश्वर का अभिषेक-कर्म सम्पन्न किया। तदनन्तर सभी वनस्पतियों की डालियों से चन्द्रमा के समान श्वेत दुग्ध टपकने लगा (इस तरह उन वनस्पतियों ने भी भगवान का अभिषेक किया) देवताओं ने फूलों की वर्षा की तथा आकाश में दिव्य बाजे अपने-आप बज उठे। तत्पश्चात सभी मन्त्रपरायण मुनियों ने भगवान श्रीकृष्ण का स्तवन किया। पृथ्वी ने अपने उस स्वरूप को धारण किया, जो एकार्णव से पृथक होने पर उसे प्राप्त हुआ था। समस्त समुद्रों के जल प्रसन्न (स्वच्छ निर्मल) हो गये। वायु जगत के लिये हितकारक होकर बहने लगी। सूर्यदेव अपने सूर्यदेव अपने समुचित मार्ग पर स्थित रहकर प्रकाशित होने लगे। चन्द्रमा नक्षत्रों से संयुक्त होकर सुशोभित होने लगे। अतिवृष्टि आदि ईतियां शान्त हो गयीं। राजाओं के सभी कार्य वैर भाव से रहित होने लगे। वृक्ष फूलों से भर गये और नूतन पल्लवों तथा हरे-हरे पत्तों से विचित्र शोभा धारण करने लगे। हाथी मद बहाने लगे। वन में मृग आदि पशु संतोष प्राप्त करने लगे। पर्वत अपने ऊपर उगे हुए वृक्षों तथा विभिन्न धातुओं से शोभा पाने लगे। सम्पूर्ण जगत देवलोक के समान सुखी हो गया, मानो उसे अमृत-रस से तृप्त कर दिया गया हो। इस प्रकार दिव्य स्वर्गीय रस (जल) से सिक्त होकर श्रीकृष्ण का वह अभिषेक-कर्म सम्पन्न हुआ। गौओं द्वारा अभिषिक्त होकर दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करने वाले अविनाशी गोविन्द से देवदेव इन्द्र ने इस प्रकार कहा- 'श्रीकृष्ण! यह मैंने आपको अपने आगमन का प्रथम हेतु बताया है, जिसके अनुसार गौओं की आज्ञा का पालन किया गया है। अब मेरे आने का जो दूसरा कारण है, उसे भी सुन लीजिये। मुझे यह कहना है कि आप शीघ्र ही कंस तथा अश्वों में अधम केशी का भी वध कर डालिये। मदमत्त अरिष्टासुर को यमलोक भेज दीजिये। तदनन्तर राजाओं पर शासन कीजिये। आप की बुआ कुन्ती के गर्भ से मेरा अंश उत्पन्न हुआ है, जो मेरे ही समान है। आप उसकी रक्षा करें और उसे आदर दें तथा अपना सखा बना लें। आपसे अनुगृहीत होकर वह आपके बताये हुए आचार का पालन करेगा और सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहकर भूमण्डल में महान यश प्राप्त कर लेगा। वह भरतवंश का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होगा। आपकी इच्छा के अनुरूप बनकर रहेगा और आपके बिना कभी कहीं भी उसका मन नहीं लगेगा। आप और उस पुरुष प्रवर कुन्तीकुमार पर ही महाभारत युद्ध अवलम्बित होगा। आप दोनों का संयोग प्राप्त होने पर राजा लोग युद्ध में मारे जायेंगे। श्रीकृष्ण! मैंने ऋषियों तथा देवताओं के बीच में इस बात का विज्ञापन कर दिया है कि कुन्ती के गर्भ से मेरे द्वारा जिस कुलदीपक पुत्र की उत्पत्ति हुई है, उसका नाम अर्जुन है। वह अस्त्रों की विद्या में पारंगत है। धनुष को खींचने में सबसे श्रेष्ठ है। शस्त्रों द्वारा युद्ध करने वाले सब नरेश उसी में विलीन हो जायँगे। संग्राम में शोभा पाने वाले शूरवीर राजाओं की कई अक्षौहिणी सेनाओं को वह अकेला ही क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करके मौत के घाट उतार देगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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