हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 126 श्लोक 81-101

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षड्-विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 81-101 का हिन्दी अनुवाद


दोनों पैरों से अगल-बगल में आघात करके महाबली गरुड़ ने उस पर बारम्बार प्रहार किये। वे उसे कभी वेगपूर्वक अपनी ओर खींचते और कभी पीछे ढकेलते थे, इस तरह उसे मूर्च्छित करके उन्होंने नीचे गिरा दिया, मानो आकाश से सूर्य को धराशायी कर दिया गया हो। मोर के गिर जाने पर अत्यन्त बलशाली बाणासुर भी उसे युद्ध से घबराकर अपने कर्तव्य का विचार करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। (वह सोचने लगा) ‘अहो! मैंने अत्यन्त बल के घमंड में आकर अपने हितैषी सुहृदों की बात नहीं मानी, इसलिये आज देवताओं और दैत्यों के देखते-देखते मैं इस भारी विपत्ति में फँस गया हूँ। रणभूमि में बाणासुर को अत्यन्त व्याकुल और दीन-चित्त हुआ जान भगवान रुद्र आतुर हो उसकी रक्षा का उपाय सोचने लगे। तत्पश्चात महादेवजी ने गम्भीर वाणी द्वारा नन्दी से कहा- ‘नन्दिकेश्वर! जहाँ बाणासुर रणभूमि में स्थित है, वहाँ जाओ और उसे सिंहों द्वारा जुते हुए इस तेजस्वी दिव्य रथ से शीघ्र संयुक्त करो।

निष्पाप नन्दिकेश्वर! यह रथ युद्ध के लिये पर्याप्त है। मैं यहाँ प्रमथगणों के बीच में रहूँगा। अब मेरा मन युद्ध करने के लिये उत्साहित नहीं हो रहा है। तुम जाओ, बाणासुर की रक्षा करों। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर रथियों में श्रेष्ठ नन्दी रथ के द्वारा उस स्थान पर गये जहाँ बाणासुर विद्यमान था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने बाणासुर से धीरे-धीरे इस प्रकार कहा, ‘महाबली दैत्य! तुम शीघ्र आओ और इस रथ पर आरूढ़ हो जाओ। तदनन्तर दानवों का विनाश करने वाले श्रीकृष्ण के साथ समरांगण में युद्ध करो।' नन्दी की यह बात सुनकर बाणासुर बुद्धिमान महादेव जी के रथ पर आरूढ़ हुआ। उन तेजस्वी महादेव जी के उस रथ का निर्माण साक्षात ब्रह्मा जी ने किया था, उस पर बैठे हुए अत्यन्त पराक्रमी बाणासुर ने कुपित हो ब्रह्मशिर नामक महाभयंकर प्रज्वलित अस्त्र का प्रयोग किया, जो सम्पूर्ण अस्त्रों का विनाश करने वाला था। उस ब्रह्मशिर अस्त्र के प्रज्वलित होते ही यह सम्पूर्ण जगत क्षुब्ध हो उठा। ब्रह्मयोनि ब्रह्मा ने जगत की रक्षा के लिये ही उस अस्त्र की सृष्टि की थी। श्रीकृष्ण ने अपने चक्र द्वारा उस अस्त्र का विनाश करके वेगशाली, विश्वविख्यात यशस्वी तथा रणक्षेत्र में अनुपम शक्तिशाली बाणासुर से इस प्रकार कहा-

‘तात! तुम्हारी वे बहकी-बहकी बातें कहाँ गयीं? बाणासुर! अब तुम बढ़-चढ़कर बातें क्यों नहीं बनाते हो? देखो, यह मैं युद्ध के लिये खड़ा हूँ, तुम मेरे साथ युद्ध करो और मर्द बनो। पूर्वकाल में कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन सहस्र भुजाओं के बल-पराक्रम से ही उत्पन्न हुआ है, अत: यह मैं युद्ध के मुहाने पर तुम्हारा सारा घमंड चूर किये देता हूँ। आज मैं अपनी एक बाँह से जब तक तुम्हारा घमंड दूर न कर दूँ, तब तक इस समय तुम यहीं ठहरे रहो। आज युद्ध के मुहाने पर तुम मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकोगे।' तदनन्तर देवासुर संग्राम के समान उस समरांगण में वह अत्यन्त भयंकर और दुर्लभ युद्ध देखकर देवर्षि नारदजी नृत्य करने लगे। महात्मा प्रद्युम्न ने वहाँ समस्त रुद्रगणों को पराजित कर दिया, वे युद्ध की बातचीत करना छोड़कर पुन: देवाधिदेव महादेव जी के पास चले गये। तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने तुरंत ही वर्षाकाल के मेघ की भाँति गर्जना करके अपना वह सहस्रार चक्र हाथ में ले लिया, जो रणभूमि में बाणासुर का अन्त करने में समर्थ था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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