हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 126 श्लोक 102-121

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षड्-विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 102-121 का हिन्दी अनुवाद


उस समय जो ग्रहों और नक्षत्रों का तेज था, जो वज्र और अशनि का प्रभाव था तथा जो देवेश्वर इन्द्र का तेज था, वह सब उस चक्र में स्थापित हो गया। तीनों अग्‍न‍ियों और ब्रह्मचारियों का जो तेज है तथा ऋषियों का जो ज्ञान है, वह सब उस चक्र में स्थित हो गया। पतिव्रताओं का जो तेज है, पशुओं और पक्षियों के जो प्राण हैं तथा चक्रधारियों में जो बल है, वह सब उस चक्र में समाविष्ट हो गया। नाग, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व और अप्सराओं की तथा त्रिलोकी की जो प्राणशक्ति है, वह सब उस चक्र में प्रतिष्ठित हुई। उस तेज से संयुक्त होकर वह चक्र जाज्वल्यमान सूर्य के समान उद्दीप्त हो उठा और सामने स्थित होकर अपने शरीर से बाणासुर के तेज को ग्रहण करने लगा। रणक्षेत्र में अति तेजस्वी श्रीकृष्ण ने अप्रमेय एवं अमोघ चक्र उठा लिया है, यह जानकर रुद्राणी ने शिव जी से कहा- 'देव! श्रीकृष्ण जिस चक्र को धारण करते हैं, वह तीनों लोकों में अजेय है, अत: जब तक वे उस चक्र को छोड़ नहीं देते हैं, तब तक ही यत्न करके बाणासुर की रक्षा कीजिये।' पार्वती जी का यह वचन सुनकर भगवान त्रिलोचन ने देवी लम्बा से कहा- लम्बे! तुम बाणासुर की रक्षा के लिये शीघ्र जाओ। तब हिमवान की पुत्री उमा योग का आश्रय ले अदृश्य हो श्रीकृष्ण के पास गयीं, वे अपने उस स्वरूप का दर्शन एकमात्र श्रीकृष्ण को ही करा रही थीं। समरांगण में भगवान श्रीकृष्ण को हाथ में चक्र उठाये देख वे पुन: अदृश्य हो अपने वस्त्र का परित्याग करके बाणासुर की रक्षा के लिये विजयधिष्ठित हो कोटवी या लम्बा के रूप में वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के समक्ष नंगी खड़ी हो गयीं। रुद्रप्रिया पार्वती देवी को पुन: लम्बा के साथ आकर सामने खड़ी हुई देख श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा- 'फिर तुम अमर्ष से लाल आँखें किये रणभूमि में आकर नंगी खड़ी हो गयीं और बाणासुर की रक्षा के प्रयत्न में लग गयीं, परंतु मैं बाणासुर को मारूँगा, इसमें संशय नहीं हैं।'

श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर देवी ने फिर इस प्रकार कहा- ‘प्रभो! मैं आपको जानती हूँ, आप समस्त प्राणियों के स्रष्टा, पुरुषोत्तम, महान सौभाग्‍यशाली, महादेव, अनन्त, श्यामवर्ण वाले तथा अविनाशी पुरुष हैं, आपकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है, आप समस्त इन्द्रियों के नियन्ता हैं तथा सम्पूर्ण जगत के आदि कारण हैं। देव! यह बाणासुर रणभूमि में अप्रतिम वीरता दिखाने वाला है, अत: आपको इसका वध नहीं करना चाहिये। भगवन! बाणासुर को अभयदान दीजिये और मुझे जीवित पुत्र की जननी बनाइये। मैंने इसे वर दे रखा है, इसलिये पुन: मेरे द्वारा इसकी रक्षा की जा रही है। माधव! आप मेरे उद्योग को मिथ्या न कीजिये।' देवी के ऐसी बात कहने पर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले श्रीकृष्ण इस प्रकार बोले- 'भामिनि! तुम मेरी सच्ची बात सुनो। बाणासुर अपनी सहस्र भुजाओं के कारण घमंड में भरकर गर्जता रहता है, अत: आज इन भुजाओं का छेदन करना कर्तव्य है, इसमें संशय नहीं है। देवी! तुम दो बाँह वाले बाणासुर के द्वारा ही जीवित पुत्र वाली बनोगी। यह बाणासुर आसुर अभिमान का आश्रय लेने के कारण कभी मेरी शरण में नहीं आयेगा।' अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्ण के इस तरह कहने पर देवी बोली- 'प्रभो! यह बाणासुर महादेव जी का दिया हुआ मेरा दत्तक पुत्र हो।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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