हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षड्-विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 122-141 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! दैत्यों को मार गिराने वाला चक्र जब अपना काम पूरा करके श्रीकृष्ण के हाथ में आ गया, तब बाणासुर के उस शरीर से रक्त की धारा बहने लगी, कटी हुई बाँह वाला वह महान असुर खून से लथपथ होकर पर्वताकार हो गया और रक्त से मतवाला हो मेघ के समान नाना प्रकार से गर्जना करने लगा। उसके उस महान सिंहनाद से कुपित हुए शत्रुसूदन केशव बाणासुर विनाश कर डालने के लिये उद्यत हो गये। वे पुन: अपना चक्र छोड़ना ही चाहते थे कि कुमार कार्तिकेय सहित महादेव जी उनके पास आ गये और इस प्रकार बोले। महादेव जी बोले- कृष्ण! कृष्ण!! महाबाहो!! मैं आपको जानता हूँ, आप मधु और कैटभ का वध करने वाले सनातन देवाधिदेव पुरुषोत्तम श्रीहरि हैं। देव! आप सम्पूर्ण लोकों की गति हैं, आप से ही इस जगत की उत्पत्ति हई है, देवता, असुर तथा नागों सहित तीनों लोकों के लिये आप अजेय हैं। अत: आप ऊपर उठे हुए अपने इस दिव्य चक्र को पुन: समेट लीजिये। रणभूमि में इसका निवारण अथवा संहार करने वाला दूसरा कोई नहीं है, यह शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर है। केशनिषूदन! मैंने इस बाणासुर को अभयदान दे रखा है, मेरा यह वचन व्यर्थ न हो जाय इसके लिये मैं आपसे क्षमा करने की प्रार्थना करता हूँ। श्रीकृष्ण बोले- 'देव! यह चक्र मैंने लौटा लिया, अब यह बाणासुर चिरजीवी हो, आप देवताओं के भी देवता तथा सम्पूर्ण असुरों के लिये माननीय हैं। महेश्वर! आपको नमस्कार है। अब मैं लौट जाऊँगा, बाणासुर का वधरूपी जो कार्य मुझे करना था, वह आपके अनुरोध से अब मेरे द्वारा नहीं किया जा रहा है, इसलिये आप मुझे लौटने की आज्ञा प्रदान करें।' महादेव जी से ऐसा कहकर महामनस्वी भगवान श्रीकृष्ण तुरंत उस स्थान पर गये, जहाँ प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध सायकों से बँधे हुए थे । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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