हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 126 श्लोक 142-157

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षड्-विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 142-157 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण के चले जाने पर नन्दी ने बाणासुर से यह मंगलमय बात कही- ‘बाण! तुम प्रसन्न हुए देवाधिदेव महादेव जी के सामने चलो।' नन्दी का वह वचन सुनकर बाणासुर शीघ्रतापूर्वक चल पड़ा। उसकी भुजाएँ कटी हुई देख प्रतापी नन्दी उसे रथ पर बिठाकर जहाँ महादेव जी थे, वहाँ ले गये। तत्पश्चात नन्दी ने ने पुन: बाणासुर से पहले ही यह उत्कृष्ट बात कही- ‘बाण! बाण!! तुम भगवान शंकर के सामने नृत्य करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा, यह भगवान महादेव जी तुम्हारे ऊपर कृपा करने के लिये प्रसन्न मुख हो रहे हैं’। नन्दी के वाक्य से प्रेरित हो जीवन की इच्छा रखने वाला बाणासुर भय से व्याकुल और अचेत होकर रक्त से लथपथ हुए शरीर से भगवान शंकर के सम्मुख नृत्य करने लगा। नन्दी के कहने से भय के कारण उद्विग्र होकर वेगपूर्वक-बारम्बार नृत्य करते हुए उस दानव की ओर देखकर भक्तवत्सल भगवान शिव करुणा के वशीभूत हो इस प्रकार बोले। श्रीमहादेव जी ने कहा- 'बाण! तुम अपने मन से जो चाहते हो, वह वर मुझ से माँगो। मैं तुम पर कृपा करने के लिये प्रसन्न हुआ हूँ। दानव! तुम मेरे प्रिय हो।' बाणासुर बोला- सर्वव्यापी देव! मैं सदा अजर और अमर रहूँ, यदि आप स्वीकार करें तो मेरे लिये यही प्रथम वर हो। श्रीमहादेव जी ने कहा- बाणासुर! तुम देवताओं के तुल्य हो, तुम्हारे लिये मृत्यु नहीं है। अब कोई दूसरा वर माँगो, क्योंकि तुम सदा मेरे कृपापात्र हो।

बाणासुर बोला- भगवन! मैं अत्यन्त आर्त, घाव से पीड़ित और खून से लथपथ हूँ। तथापि जिस प्रकार नृत्य कर रहा हूँ, इस तरह नृत्य करने वाले भक्तों के यहाँ पुत्र जन्म का उत्सव हो। श्रीमहादेव जी ने कहा- जो मेरे भक्तजन निराहार, क्षमाशील तथा सत्य और सरलता से संयुक्त रहकर एकाग्रचित्त हो मेरी प्रसन्नता के लिये नृत्य करेंगे, उन्हें ऐसा ही फल प्राप्त होगा। बेटा बाणासुर! अब तुम कोई तीसरा मनोवाच्छित वर माँगो, मैं उसे पूर्ण करूँगा, मेरी कृपा से तुम यहाँ सफल मनोरथ होओ। बाणासुर बोला- निष्पात महादेव! चक्र के आघात से मुझे बड़ी भयंकर एवं तीव्र वेदना हो रही है, आपके दिये हुए तीसरे वर से मेरी वह पीड़ा शान्त हो जाय। श्रीमहादेव जी बोले- वत्स! ऐसा ही हो। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम्हें पीड़ा नहीं होगी। तुम्हारा शरीर घाव से रहित और स्वस्थ हो जायगा। तात! अब मैं तुम्हें चौथा वर देता हूँ, यदि चाहो तो माँग लो। मैं तुम से विमुख नहीं हूँ। तुम पर कृपा करने के लिये सदा ही प्रसन्नमुख हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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