हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 125 श्लोक 19-36

Prev.png

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद

योग स्वरूप भगवान शंकर योग में प्रवेश करके (समाधि लगाकर) पहले के दिये हुए उन वरों का चिन्तन करने लगे तथा द्वारका में जो कुछ कहा था, उन सब बातों का बारम्बार स्मरण करके उन्होंने ब्रह्मा जी को कोई उत्तर नहीं दिया, वे उस समय युद्ध से निवृत्त हो गये। उन्होंने अपने-आपको सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्णमय योनि (परब्रह्म) में स्थित देखा और अपने को एक अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप योनि से प्रकट हुआ जाना। तत्पश्चात रुद्रदेव वहाँ से निकलकर युद्ध से अलग हो गये। उन्होंने उस रणक्षेत्र में श्रीकृष्‍ण के साथ वाद-विवाद या युद्ध की भावना का परित्याग कर दिया। तत्पश्चात रुद्र ने ब्रह्माजी से कहा- ‘भगवन! अब मैं संग्रामभूमि में श्रीकृष्ण के साथ युद्ध नहीं करूँगा, अब यह पृथ्वी हल्की हो जाये। इसके बाद श्रीकृष्ण और रुद्र एक-दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और आपस के संग्राम से हट गये। श्रीकृष्ण और रुद्र दोनों योगी हैं तथा दोनों एक दूसरे से अभेद-सम्बन्ध को प्राप्त हैं, इस बात को वहाँ दूसरे किसी ने नहीं समझा, एकमात्र पितामह ब्रह्मा ने उन दोनों का अभेद-सम्बन्ध स्थापित करके उन्हें उसी भाव से देखा और सब लोगों की ओर देखते हुए इसी विषय को लेकर अपने बगल में खड़े हुए नारद तथा मार्कण्डेय को दीर्घदर्शी जानकर इस प्रकार पूछा।

पितामह बोले- ब्रह्मन! मैंने मन्दराचल पर्वत के पार्श्च भाग में रात को सोते समय सपने में एक सरोवर के तट पर श्रीकृष्ण और भगवान शंकर को देखा, जो तत्काल ही एक-दूसरे के रूप में बदल गये थे (अर्थात श्रीकृष्ण की जगह शिव और शिव की जगह श्रीकृष्ण हो गये थे)। मैंने हर को हरिरूप में देखा और हरि को हररूप में, भगवान हर ने हाथों में शंख, चक्र और गदा ले रखी थी। और उनके अंगों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। उधर श्रीहरि त्रिशूल और पट्टिश धारण किये बाघम्बर पहने हुए थे, भगवान शंकर गरुड़ पर बैठे थे और श्रीहरि वृषभवाहन होकर अपनी ध्वजा में वृषभ का चिह्न धारण किये थे। ब्रह्मन! उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! वह अद्भुत दृश्य देखकर मुझे महान विस्मय हुआ। भगवन! आप इसके रहस्य का यथार्थ रूप से विवेचन करें। मार्कण्डेय जी बोले- विष्णुरूपधारी शिव और शिवरूपधारी विष्णु को नमस्कार है।

मैं इन दोनों में कोई अन्तर नहींं देखता, मेरे इस भाव से संतुष्ट होकर वे दोनों मुझे कल्याण प्रदान करें। आदि, मध्य और अन्त से रहित जो यह अविनाशी अक्षर ब्रह्म है, उसका स्वरूप हरिहरात्मक है। ब्रह्मन! मैं आपके सक्षम उसी हरिहरात्मक ब्रह्म का वर्णन करूँगा। जो विष्णु हैं, वे ही रुद्र हैं और जो रुद्र हैं, वे ही ब्रह्मा हैं, इनका मूल स्वरूप तो एक ही है, परंतु ये कार्यभेद से रुद्र, विष्णु और ब्रह्मा तीन देवता कहलाते हैं। ये सब-के-सब लोकस्रष्टा, वरदायक, जगन्नाथ, स्वयम्भू, अर्धनारीश्वर तथा तीव्र व्रत का आश्रय लेने वाले हैं। जैसे जल में डाला हुआ जल जल रूप ही हो जाता है, उसी प्रकार रुद्रदेव में प्रविष्ट हुए भगवान विष्णु रुद्रमय हो जाते हैं। जैसे अग्‍न‍ि में प्रविष्ट हुई अग्‍न‍ि अग्‍न‍िरूप ही होती है, उसी प्रकार विष्णु में प्रविष्ट हुए रुद्रदेव विष्णुरूप ही होते हैं। रुद्र को अग्‍न‍िस्वरूप जाने और भगवान विष्णु सोम स्वरूप माने गये हैं। इसलिये यह समस्‍त चराचर जगत अग्नीषोमात्मक कहलाता है। यह हरि और हर ही समस्त चराचर जगत के कर्ता, संहारक, शुभकारक तथा प्रभावशाली महेश्वर हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः