हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 122 श्लोक 20-40

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद


फिर तो आहवनीय अग्न‍िदेव शान्त हो गये। आकाश-गंगा के जल से आहवनीय अग्नि को शान्त हुआ देख गरुड़ महान आश्चर्य में पड़कर बोले- ‘अहो! अग्नि का बल तो अद्भुत है, क्योंकि वे महाप्रलय के समय तीनों लोकों को दग्ध कर सकते हैं, जैसे कि यहाँ इन्होंने बुद्धिमान श्रीकृष्ण के रूप-रंग में परिवर्तन ला दिया था। (तथापि श्रीकृष्ण के प्रभाव से आकाश-गंगा द्वारा ये बुझ गये) मेरा तो यह विश्वास है कि श्रीकृष्‍ण, संकर्षण और महाबली प्रद्युम्न- ये तीन वीर तीनों लोकों का सामना करने के लिये पर्याप्त है। तदनन्तर आग बुझ जाने पर पक्षिराज गरुड़ अपने पंखों के बलपूर्वक संचालन से भयंकर एवं महान कोलाहल करते हुए आगे बढ़े। वहाँ उन्हें देखकर रुद्र के अनुचर अग्निगणों को बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे, ये नान रूपधारी भयंकर वीर गरुड़ पर चढ़कर किसलिये यहाँ आये हैं तथा ये तीनों पुरुष कौन हैं?

इस प्रकार पर्वतों पर विचरने वाले वे अग्निगण किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके, अत: उन्होंने उन तीनों यादव वीरों के साथ युद्ध छेड़ दिया। युद्ध में आसक्त हुए उन अग्नियों का महान सिंहनाद प्रकट होने लगा। दहाड़ते हुए सिंह के समान उनके उस महानाद को सुनकर बुद्धिमान अंगिरा ने आपने एक पुरुष को वहाँ भेजा। उन्होंने उससे कहा- जहाँ वह युद्ध हो रहा है वहाँ शीघ्र जाओ और वह सब कुछ देखकर शीघ्र लौट आओ। ऐसा कहकर उन्होंने उसे बड़ी उतावली के साथ भेजा। तब ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर उस पुरुष ने महासमर में भगवान वासुदेव के साथ उलझे हुए अग्‍न‍िगणों के उस वर्तमान युद्ध को देखा। वे सब-के-सब जातवेदा अग्‍न‍ि थे; उनके नाम इस प्रकार थे- कल्माष, कुसुम, दहन, शोषण अैर महाबली तपन। ये स्वाहाकार विषयक पांच प्रख्यात अग्‍न‍ि कहे गये हैं। इनके सिवा दूसरे महाभाग अग्‍न‍ि भी अपने सैनिकों के साथ खड़े थे, जिनके नाम थे- पिठर, पतग, स्वर्ण, श्वागाध और भ्राज। ये पाँच स्वधाकार का आश्रय लेकर रहने वाले अग्‍न‍ि कहे गये हैं, ये अग्‍न‍ि भी वहाँ युद्ध कर रहे थे।

इनके सिवा वषट्कार के आश्रय में रहने वाले दो महातेजस्वी और महामनस्वी अग्‍न‍ि, जिनका नाम जयोतिष्टोम और विभाग था, वहाँ युद्ध कर रहे थे। इन दोनों के बीच में प्रमुख अग्‍न‍ि महर्षि अंगिरा आग्रेय रथ पर आरूढ़ हो एक तेजस्वी बाण हाथ में लिये रणभूमि में प्रकाशित हो रहे थे। महर्षि अंगिरा को पैने बाण छोड़ते हुए वहाँ स्थित देख क्रोध में भरे हुए भगवान श्रीकृष्ण बारम्बार मुसकराते हुए-से बोले- ‘अग्‍न‍ियों! तुम सब लोग खड़े रहो! मैं अभी तुम्हारे लिये भय की सृष्टि करता हूँ। मेरे अस्त्र के तेज से दग्‍ध होकर तुम स्वयं ही सम्पूर्ण दिशाओं में भाग जाओगे।’ यह सुनकर अंगिरा ने उस महासमर में क्रोधपूर्वक चमकता हुआ त्रिशूल हाथ में लेकर श्रीकृष्ण पर धावा किया, मानो वे उनके प्राण ले लेने को उद्यत हों। श्रीकृष्ण ने अपने तीखे अर्द्धचन्द्राकार उत्तम बाणों से, जो यमराज के समान क्रूर और अन्तक के समान प्राणहारी थे, उनके चमकते हुए त्रिशूल को काट डाला। इसके बाद उन महामना श्रीहरि ने स्थूणाकर्ण नामक कालसदृश तेजस्वी बाणों द्वारा अंगिरा की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। अंगिरा का सारा शरीर लहूलुहान हो गया। उनकी देह अकड़ गयी और वे विह्वल होकर सहसा पृथ्‍वी पर गिर पड़े। तत्पश्चात शेष सब अग्‍न‍ि जो ब्रह्मा जी के चार पुत्र हैं, उस समय उन्हें शीघ्र ही बाणासुर के नगर के निकट उठा ले गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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