हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 122 श्लोक 41-60

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद

तत्पश्चात श्रीकृष्ण जहाँ बाणासुर का नगर निकट था, वहाँ गये। बाणपुर को दूर से ही देखकर नारद जी ने कहा- ‘महाबाहु श्रीकृष्ण! देखिये, यही शोणितपुर है। यहाँ महातेजस्वी रुद्र ने देवी रुद्राणी के साथ निवास किया है। बाणासुर की रक्षा तथा उसके क्षेम के लिये कार्तिकेय भी यहाँ सदा निवास करते हैं। नारद जी की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए बोले- ‘महामुने! आप यहाँ मेरी बात सुनिये और क्षणभर उस पर विचार कीजिये। यदि बाणासुर की रक्षा के लिये भगवान रुद्र उतर आयेंगे तो हम लोग भी अपनी शक्ति के अनुसार उनके साथ युद्ध अवश्य करेंगे।' इस प्रकार वहाँ नारद और श्रीकृष्ण में बातचीत हो रही थी कि गरुड़ के द्वारा शीघ्र चलकर वे सब लोग निमेषमात्र में जा पहुँचे। तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने शंख को मुँह से लगाकर बजाया। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो कोई मेघ वायु के वेग से प्रेरित होकर चन्द्रमा को उगल रहा हो। इस प्रकार उस शंख को बजाकर असुरों के मन में भय उत्पन्न करके पराक्रमी श्रीकृष्ण ने अद्भुत कर्म करने वाले बाणासुर के पुर में प्रवेश किया। तदनन्तर शंखों के शब्दों और भेरियों के गम्भीर घोषों से प्रेरित हो बाणासुर की सारी सेनाएँ सहसा सब ओर से कवच आदि पहनकर युद्ध के लिये तैयार हो गयीं।

तत्पश्चात बाणासुर ने भय के कारण युद्ध के लिये अपने किंकर नामक सैनिकों को आज्ञा दी। उनकी संख्या कई करोड़ की थी। उन सबके पास चमकीले अस्त्र-शस्त्र थे। एक स्थान पर खड़ी हई वह असंख्य सेना महान मेघों की घटा के समान जान पड़ती थी। उसकी कान्ति नीली अंजनराशि के समान दिखायी देती थी। वह अप्रमेय और अक्षय थी। उस सेना में जो दैत्य, दानव और राक्षस थे, उन सब के हाथों में चमकीले अस्त्र-शस्त्र शोभा पा रहे थे। भगवान शिव के प्रमथगणों में जो मुख्य-मुख्य वीर थे, वे भी वहाँ आकर अविनाशी भगवान कृष्ण के साथ युद्ध करने लगे। चमकीले अस्त्र-शस्त्र धारण करने के कारण जो लपटों से युक्त अग्‍न‍ियों के समान प्रतीत होते थे, वे भयंकर यक्ष, राक्षस और किन्नर सब ओर से निकट आकर युद्धस्थल में श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्युम्न और गरुड़- इन चारों का रक्त पीने की चेष्टा करने लगे। शत्रुओं की सेना का नाश करने वाले महाबली बलभद्र बाणासुर की उस सेना को निकट पाकर श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले-

‘कृष्ण! कृष्ण! महाबाहो! इनके लिये महान भय उपस्थित करो।’ बुद्धिमान बलभद्र के द्वारा इस प्रकार प्रेरित हो अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने उन शत्रुओं के वध के लिये आग्नेयास्त्र हाथ में लिया। उस समय वे यम और अन्तक के समान भयंकर जान पड़ते थे। अपने अस्त्र के तेज से उन मांसभक्षी असुरों को नष्ट करके श्रीकृष्‍ण बड़ी उतावली के साथ उस स्थान पर गये, जहाँ वह शत्रुसेना दिखायी दे रही थी। शूल, पट्टिश, शक्ति, ऋष्टि, पिनाक और परिघ आदि आयुधों से युक्‍त वह सेना, जिसमें प्रमथगणों की अधिकता थी, भूतल पर खड़ी थी। पर्वत और मेघों के समान दिखायी देने वाले नाना रूपधारी भयानक वाहनों पर आरूढ़ हो वे समस्त योद्धा वहाँ संघबद्ध होकर खड़े थे। सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले बहुसंख्यक सैनिकों से, जो वायु द्वारा उड़ाये गये छिन्न-भिन्न बादलों तथा बिखरे हुए पर्वतों के समान दूर तक फैले हुए थे, उस स्थान की बड़ी शोभा हो रही थी। वह असंख्य एवं अगाध सेना सब ओर से मुसल, खड्ग, शूल, गदा और परिघ आदि के द्वारा सुशोभित हो रही थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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