हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवादमहान असुर हयग्रीव सगे-सम्बंधियों सहित आपके हाथ से मारा गया। देवताओं के लिये वैसे-वैसे अत्यन्त भयंकर युद्ध आपने किये हैं। गोविन्द! प्रत्येक रणक्षेत्र में आपने ये सारे कर्म पूर्णरूप से सम्पन्न किये हैं, किंतु आपका साथ देने वाला कोई नहीं है। श्रीकृष्ण! पारिजात का हरण करते समय आपने जो दुष्कर कर्म किया था, वह सबसे महान था। आपके द्वारा किया गया यह पारिजात-हरणरूपी कर्म परिणाम सहित सबसे उत्कृष्ट है। श्रीकृष्ण! उस समय आपने अपने बाहुबल से ऐरावत की पीठ पर बैठे हुए युद्ध विशारद इन्द्र को भी पराजित कर दिया। अत: इसमें कोई संशय नहीं कि देवराज इन्द्र आपके साथ वैर कर सकते हैं। उनका आपके साथ महान वैर बाँधना अवश्य सम्भव है। अत: अनिरुद्ध का अपहरण स्वत: इन्द्र ने ही किया है। दूसरे किसी में इस तरह वैर का बदला लेने की शक्ति नहीं हो सकती।' उनके ऐसी बात कहने पर बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण ने हाथी के समान उच्छ्वास लेकर महाबली अनाधृष्टि से इस प्रकार कहा- ‘तात! सेनापते! ऐसी बात न कहो, न कहो, देवता ऐसा नीच कर्म करने वाले नहीं होते वे न तो अकृतज्ञ होते हैं, न कायर। न घमंडी होते हैं, न मूर्ख। देवताओं के लिये ही मेरा दानव-संहार के निमित्त महान प्रयत्न होता रहता है। उन्हीं का प्रिय करने के लिये मैं रण में अभिमानी और महाबली असुरों का वध करता हूँ। मैं शरीर से उन देवताओं के हित में तत्पर रहता हूँ, मन से उन्हीं का हित-चिन्तन करता हूँ, उनमें भक्तिभाव रखता हूँ और उन्हीं का प्रिय करने में लगा रहता हूँ। मुझे ऐसा जानकर भी वे मेरे साथ दुर्व्यवहार क्यों करेंगे। देवता क्षुद्रता से रहित, सत्यवादी तथा भक्तजनों पर सदा कृपा करने वाले होते हैं। उनसे पाप नहीं हो सकता। तुम विवेकशून्य होने के कारण उनके सम्बन्ध में उपर्युक्त बात कह रहे हो। कदाचित यह सम्भव हो सकता है कि किसी पुंश्चली स्त्री ने यहाँ आकर अनिरुद्ध का अपहरण किया हो। इन्द्र सहित देवताओं में से किसी के द्वारा ऐसा कर्म नहीं बन सकता’। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! ऐसा विचार करते हुए अद्भूतकर्मा श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर अर्थयुक्त वचन बोलने में चतुर अक्रूर ने स्नेहयुक्त वाणी में मधुर स्वर से कहा- ‘प्रभो! इन्द्र का जो कार्य है, वह निश्चय ही हम लोगों का भी है। इसी प्रकार जो हमारा कार्य है, वह शचीपति इन्द्र का भी है। देवताओं को हमारी रक्षा करनी चाहिये और हमें देवताओं की, क्योंकि हम लोग भी देवताओं के लिये ही मानव-शरीर में आये हैं। अक्रूर के इन वचनों से प्रेरित होकर मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने पुन: स्निग्ध गम्भीर वाणी में कहा- महायशस्वी अक्रूर जी! प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध का अपहरण देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों ने नहीं किया है। निश्चय ही यह किसी पुंश्चली (व्यभिचारिणी) स्त्री का काम है। दैत्यों और दानवों की जो पुंश्चली स्त्रियाँ हैं, वे माया में निपुण होती हैं। उन्हीं के द्वारा अनिरुद्ध अपहरण हुआ है, इसमें संदेह नहीं है। दूसरे किसी से यह भय नहीं प्राप्त हुआ है। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! महात्मा श्रीकृष्ण के ऐसी बात कहने पर यदुमण्डल में जो कुछ हुआ था, उसको ठीक से जान लेने पर वहाँ श्रीकृष्ण की प्रशंसा से भरा हुआ महान शब्द प्रकट हुआ। यदुपति श्रीकृष्ण के महल में सबके हर्ष को बढ़ाता हुआ सूतों, मागधों और वन्दियों का वह मधुर घोष सबको सुनायी देने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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