हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 121 श्लोक 21-42

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण! ये सब आपकी शरण में हैं और आपने सबको पृथक-पृथक सुख-सुविधा प्रदान की हैं। इसी प्रकार बलवान इन्द्र भी आप पर ही जय-पराजय का भार रखकर बिना किसी डर-भय के सुखपूर्वक सोते हैं। फिर आप कैसे चिन्ता में डूबे हुए हैं। आपके ये समस्त बन्धु-बान्धव आपकी यह दशा देखकर शोक के अक्षोभ्य समुद्र में मग्न हो गये हैं। महाबाहो! आप अकेले ही इन डूबते हुए कुटुम्बीजनों का उद्धार कीजिये। इस तरह चिन्तामग्न होकर आप क्यों कुछ भी नहीं बोल रहे हैं? देव! माधव! आपको व्यर्थ चिन्ता नहीं करनी चाहिये। विपृथृ के ऐसा करने पर बातचीत के मर्म को समझने वाले श्रीकृष्ण ने बहुत देर तक लम्बी साँस खींचकर साक्षात बृहस्पति के समान यह बात कही। श्रीकृष्ण बोले- विपृथो! मैं चिन्तामग्न होकर इसी कार्य के विषय में विचार कर रहा था, किंतु बहुत सोचने पर भी मैं इस कार्य का कोई निश्चित आधार न पा सका। इसीलिये तुम्हारे पूछने पर भी मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। आज समस्त दाशार्हगणों के बीच मैं यह अभिप्रायपूर्ण बात कह रहा हूँ। यादवों! तुम सब लोग सुन लो कि मैं क्यों चिन्तित हो उठा हूँ। वीर अनिरुद्ध के इस तरह अपहरण हो जाने पर भूमण्डल के समस्त भूपाल बन्धु-बान्धवों सहित हम सब लोगों को शक्तिहीन समझेंगे।

पूर्वकाल में शाल्व ने हमारे राजा उग्रसेन को हर लिया था, तब हमने अत्यन्त दारुण युद्ध करके उन्हें वापस लौटाया था। हमारे प्रद्युम्न को भी बाल्यावस्था में शम्बरासुर ने चुरा लिया था, परंतु रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न समरांगण में उस असुर का वध करके स्‍वयं चले आये। किंतु यह तो सबसे बढ़कर महान कष्ट की बात है कि प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध कहीं परदेश में पहुँचा दिये गये और हमें पता तक नहीं चला। नरश्रेष्ठ यादवों! ऐसा दोष कभी प्राप्त हुआ हो, इसका मुझे स्‍मरण नहीं है। जिसने मेरे मस्तक पर अपना राख से लिपटा हुआ पैर रखा है, सगे सम्बन्धियों सहित उस दुरात्मा के प्राणों को मैं रणभूमि में अवश्य हर लूँगा। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर सात्यकि बोले- ‘श्रीकृष्ण! अनिरुद्ध की खोज के लिये गुप्तचर भेजे जायें तथा वे पर्वत और वनस्थली सहित इस सारी पृथ्वी में उनका अनुसंधान करें। तब श्रीकृष्ण ने मुस्‍कराकर राजा उग्रसेन से कहा- ‘नरेश्वर! आप बाह्य आभ्यन्तर (प्रकट और गुप्त) चरों को इस कार्य के लिये नियुक्त कीजिये।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर राजा उग्रसेन बड़ी उतावली के साथ उठे। उन्होंने अनिरुद्ध खोज के लिये तत्काल प्रकट एवं गुप्तचर नियुक्त कर दिये। यशस्वीभूपाल महामना उग्रसेन ने चरों को नियुक्त कर दिये। उनके लिये घोड़े और रथ भी दे दिये तथा यह आज्ञा दी- तुम लोग भीतर-बाहर सब ओर अनिरुद्ध को ढूँढो। घोड़ों पर सवार हो शीघ्रतापूर्वक जाकर वेणुमान, लताविष्ट रैवतक तथा ऋक्षवान पर्वत पर उनकी खोज करो। वहाँ एक-एक उद्यान और जंगल-झाड़ी छान डालो, उद्यानों में सब ओर बेखटके चले जाना, हजारों घोड़ों और बहुसंख्यक रथों पर आरूढ़ हो तुम सब लोग बड़ी उतावली के साथ यदुनन्दन अनिरुद्ध का पता लगाओ। तदनन्तर सेनापति अनाधृष्टि ने अनायास ही महान कर्म करने वाले अच्युत श्रीकृष्ण से डरते-डरते से इस प्रकार कहा- ‘प्रभो! श्रीकृष्ण! यदि आपको जँचे तो मेरी बात भी सुनें। बड़ी देर से मेरे मन में यह बात आ रही थी कि मैं आपसे कुछ कहूँ। आपके द्वारा असिलोमा और पुलोमा मारे गये। सौभ विमान और उसके स्वामी राजा शाल्व भी नष्ट कर दिये गये। मैन्द और द्विविद भी मारे गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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