हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 119 श्लोक 120-135

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 120-135 का हिन्दी अनुवाद

वे रणभूमि में उन महापराक्रमी दानवों के साथ युद्ध करने लगे। उन्होंने शत्रुओं के ही परिघों तथा तोमरों को ले लिया। उन महाबली वीर ने उन्हीं परिघों द्वारा उस समय युद्ध में उन शत्रुओं का संहार किया। वे युद्ध के मुहाने पर बारम्बार परिघ को छोड़ते और ग्रहण करते थे। शत्रुसूदन अनिरुद्ध उस परिघ से अनेक पैंतरे दिखाते हुए युद्ध में अकेले ही विचरते थे। वे भ्रान्त[1], उद्भ्रान्त[2], आविद्ध[3], आप्लुत[4], विप्लुत[5], और प्लुत[6] आदि बत्तीस[7] प्रकार के पैंतरों से विचरते हुए दिखायी दिये।

रणभूमि में युद्ध के मुहाने पर मुँह बाये हुए काल के समान अनेक प्रकार से परिघ चलाने की क्रीड़ा करते हुए एक ही अनिरुद्ध को शत्रुओं ने सहस्रों की संख्या में देखा। उस समय उनसे संतप्त हो रक्त के प्रवाह में डूबे हुए दानव फिर अपना व्यूह भंग करके भाग खड़े हुए और जहाँ बाणासुर खड़ा था, वहाँ जा पहुँचे। हाथी, घोड़े तथा रथ समूह उन्हें चारों ओर लिये जा रहे थे। वे हतोत्साह दानव घोर आर्त्तनाद करके सम्पूर्ण दिशाओं में भागे जा रहे थे। वे उस समय भय से पीड़ित हो भागते समय परस्पर एक-एक के ऊपर चढ़ जाते थे तथा अधिक खेद के कारण युद्ध से विमुख हो रक्त वमन करते हुए पलायन कर रहे थे। पूर्वकाल में देवताओं के साथ युद्ध करते समय भी उन दानवों को वैसा भय नहीं हुआ था, जैसा समरांगण में अनिरुद्ध के साथ युद्ध करते समय हुआ था।

कितने ही पर्वत-शिखर के समान विशालकाय दानव हाथों में गदा, शूल और तलवार लिये रक्त वमन करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय रणभूमि में पराजित हुए दानव भय से व्याकुल हो बाणासुर को वहीं छोड़कर विशाल आकाश में भाग गये। जैसे यज्ञ में समिधा पाकर अग्‍नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार उस समय अपनी विशाल सेना को पूर्णरूप से भग्न हुई देख बाणासुर क्रोध से जल उठा। इधर युद्ध में अनिरुद्ध के पराक्रम से प्रसन्न हुए नारद जी आकाश में सब ओर विचरते और उन्हें साधुवाद देते हुए नृत्य करने लगे। इसी बीच में अत्यन्त क्रोधी और बलवान बाणासुर कुम्भाण्ड द्वारा नियन्त्रित रथ पर आरूढ़ हो उसी रथ पर बैठा हुआ उस स्थान पर गया, जहाँ अनिरुद्ध तलवार हाथ में लिये खड़े थे। बाणासुर अपनी सहस्र भुजाओं से पट्टिश, खड्ग, गदा, शूल और फरसे उठा सैकड़ों ध्वजों से युक्त देवराज इन्द्र के समान शोभा पाता था। जिनकी अंगुलियों में गोधाचर्म के दस्ताने बंधे हुए थे, उन भुजाओं से नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये वह महाबाहु दानवराज खड़ी शोभा पा रहा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तलवार या परिघ को गोलाकर घुमाना भ्रान्त कहलाता है, इससे शत्रु के प्रहार को निष्फल किया जाता है।
  2. तलवार या परिघ चलाने का दूसरा पैंतरा-जिसमें हाथ को ऊँचा करके उसे घुमाया जाता है।
  3. तलवार या परघि चलाने के बत्तीस हाथों में से एक, जिसमें तलवार या परिघ को अपने चारों ओर घुमाकर दूसरे के चलाये हुए वार को व्यर्थ या खाली करते हैं।
  4. सब ओर घूम-घूमकर उछलते हुए परिघ या तलवार को चलाना।
  5. विशिष्ट रूप से परिघ का संचालन करके शत्रु-सेना में विप्लव मचा देना।
  6. सामान्यत: कूद-कूदकर शत्रु के सम्मुख परिघ या तलवार को चलाना।
  7. तलवार या परिघ चलाने के बत्तीस हाथ गिनाये गये हैं, जिनके नाम ये हैं- भ्रान्त, उद्भ्रान्त, आविद्ध, आप्लुत, विप्लुत, प्लुत, सृत, संचान्त, समुदीर्ण, विग्रह, प्रग्रह, पदावकर्षण, संधान, मस्तक भ्रामण, भुजभ्रामण, पाश, पाद, विबन्ध, भूमि, उद्भ्रमण, गति, प्रत्यागति, आक्षेप, पातन, उत्थानकप्लुति, लघुता, सौष्ठव, शोभा, स्थैर्य, दृढ़मुटिता, तिर्यक्प्रचार और ऊर्ध्वप्रचार।

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