हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: नवाधिकशततम अध्याय: श्लोक 85-107 का हिन्दी अनुवादनारद, पर्वत, गन्धर्वों, और अप्सराओं के समुदाय, पितर, कारण, कार्य, आधि-व्याधि, अगस्त्य, गालव, गार्ग्य, शक्ति, धौम्य, पराशर, कृष्णात्रेय, ऐश्वर्यशाली असित-देवल, बल, बृहस्पति, उतथ्य, मार्कण्डेय, श्रुतश्रवा, द्वैयापन, विदर्भ, जैमिनि, माठर, कठ, विश्वामित्र, वसिष्ठ, महामुनि लोमश, उत्तंक, रैभ्य, पौलाम, द्वित, त्रित, कालवृक्षीय ऋषि, मुनि मेधातिथि, सारस्वत, यवक्रीति, कुशिक, गौतम, संवर्त, ॠष्यश्रृंग, स्वस्त्यात्रेय, विभाण्डक, ॠचीक, मतदग्नि, तपोनिधि और्व, भरद्वाज, स्थूलशिरा, कश्यप, पुलह, क्रतु, बृहदग्नि, हरिश्मश्रु, विजय, कण्व, वैतण्डी, दीर्घताप, वेदगाथ, अंशुमान, शिव, अष्टावक्र, दधीचि, श्वेतकेतु, उद्दालक, क्षीरपाणि, श्रृंगी, गौरमुख, अग्निवेश्य, शमीक, प्रमुचु तथा मुमुचु ये और दूसरे बहुत-से उत्तम व्रत का पालन करने वाले ऋषि एवं शुद्धात्मा मुनि तथा दूसरे यज्ञ परायण, स्पृहणीय तथा शान्त महर्षि जिनका यहाँ कीर्तन नहीं किया गया है, सदा मेरे लिये शान्ति प्रदान करें। तीन अग्नि, तीन वेद, तीनों विद्याओं के ज्ञाता, कौस्तुभमणि, उच्चै:श्रवा अश्व, श्रीमान धन्वन्तरि वैद्य, हरि, अमृत, गौ, सुपर्ण (गरुड़), दही, श्वेत सरसों, सफेद फूल, कुमारी कन्या, श्वेत छत्र, जौ, अक्षत, दूर्वादल, सुवर्ण, गन्ध, बालव्यजन (चंवर), कहीं भी प्रतिहत न होने वाला सुदर्शन चक्र, साँड, चन्दन, विष, श्वेत वृषभ, मदमत्त हाथी, सिंह, व्याघ्र, घोड़ा, पर्वत खोदकर निकाली हुई मिट्टी, लाजा, ब्राह्मण, मधु, खीर, स्विस्तिक, वर्धमान नन्द्यावर्त, प्रियंगु, श्रीफल, गोमय, मत्स्य, दुन्दुभि और पटह की ध्वनि, ऋषि पत्नियां, कन्याऐं, शोभाशाली भद्रासन, धनुष, गोरोचन, रुचक, नदियों के संगम का जल, सुपर्ण, शतपत्र, चकोर, जीव जीवक, नन्दीमुख, मयूर, जिनमें मोती और मणि बंधे हुए हों ऐसे ध्वज, कार्य सिद्धि करने वाले उत्तम आयुध- ये सब सदा ही मेरी रक्षा करें। पूर्वकाल में आयु, लक्ष्मी तथा विजय की अभिलाषा रखने वाले मंगलयुक्त स्तोत्र का वर्णन किया था। जो विद्वान मनुष्य प्रत्येक पर्व में स्नान करके जप परायण हो इस आठ सौ मांगलिक नामों से युक्त स्तोत्र का श्रवण करता अथवा कराता है, वह वध और बन्धन के क्लेश, व्याधि एवं शोक से प्राप्त होने वाले पराभव और व्याकुलता को नहीं पाता। यह स्तोत्र इहलोक और परलोक में भी कल्याण प्रदान करने वाला है। इससे धन, यश और आयु की प्राप्ति होती है। यह पवित्र तथा वेद के तुल्य आदरणीय है। यह श्रीसम्पन्न, स्वर्गदायक, सदा पुण्यकारक, कल्याणमय तथा संतान की प्राप्ति कराने वाला है; इस शुभ, उत्तम एवं बुद्धिवर्धक स्तोत्र के सेवन से मनुष्यों को क्षेम की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, यह समस्त रोगों को शान्त करने वाला तथा अपनी कीर्ति और कुल को बढ़ाने वाला है। जो श्रद्धालु, दयालु और आत्मसंयमी मनुष्य इसका पाठ करता है, वह सब पापों से शुद्धचित्त हो शुभ गति का भागी होता है। इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंश के अर्न्तगत विष्णु पर्व में बलदेवाह्निक नामक एक सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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