महाभारत सभा पर्व अध्याय 80 श्लोक 35-39

अशीतितम (80) अध्‍याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 35-39 का हिन्दी अनुवाद


ऐसा कहकर विशाल ब्रह्मातेज धारण करने वाले देवर्षि प्रवर नारद आकाश में जाकर सहसा अन्‍तर्धान हो गये।

धृतराष्ट्र ने पूछा- विदुर! जब पाण्‍डव वन को जाने लगे, उस समय नगर और देश के लोग क्‍या कह रहे थे, ये सब बातें मुझे पूर्णरूप से ठीक-ठीक बताओ।

विदुर बोले- महाराज! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्‍य लोग इस घटना के सम्‍बन्‍ध में जो कुछ कहते हैं, वह सुनिये, मैं आपसे सब बातें बता रहा हूँ। पाण्‍डवों के जाते समय समस्‍त पुरवासी दु:ख से आतुर हो सब ओर शोक में डुबे हुए थे और इस प्रकार कह रहे थे- ‘हाय! हाय! हमारे स्‍वामी, हमारे रक्षक वन में चले जा हरे हैं। भाइयों! देखो, धृतराष्ट्र के पुत्रों का यह कैसा अन्‍याय है?’ स्‍त्री, बालक और वृद्धों सहित सारा हस्तिनापुर नगर हर्षरहित, शब्‍दशून्‍य तथा उत्‍सवहीन-सा हो गया। सब लोग कुन्‍तीपुत्रों के लिये निरन्‍तर चिन्‍ता एवं शोक में निमग्न हो उत्‍साह खो बैठे थे। सब की दशा रोगियों के समान हो गयी थी। सब एक दूसरे से मिलकर जहाँ-जहाँ पाण्‍डवों-के विषय में ही वार्तालाप करते थे। धर्मराज के वन में चले जाने पर समस्‍त वृद्ध कौरव भी अत्‍यन्‍त शोक से व्‍यथित हो दु:ख और चिन्‍ता में निमग्न हो गये। तदनन्‍तर समस्‍त पुरवासी राजा युधिष्ठिर के लिये शोकाकुल हो गये। उस समय वहाँ ब्राह्मण लोग राजा युधिष्ठिर के विषय में निम्‍नांकित बातें करने लगे।

ब्राह्मणों ने कहा- हाय! धर्मात्‍मा राजा युधिष्ठिर और उनके भाई निर्जन वन में कैसे रहेंगे? तथा द्रुपदकुमारी कृष्णा तो सुख भोगने ही योग्‍य है, वह दु:ख से आतुर हो वन में कैसे रहेगी।

विदुर जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार पुरवासी ब्राह्मण अपनी स्त्रियों पुत्रों के साथ पाण्‍डवों का स्‍मरण करते हुए बहुत दुखी हो गये। शस्त्रों के आघात से घायल हुए मनुष्‍यों की भाँति वे किसी प्रकार सुखी न हो सके। बात कहने पर भी वे किसी को आदरपूर्वक उत्तर नहीं देते थे। उन्‍होंने दिन अथवा रात में न तो भोजन किया और नींद ही ली; शोक के कारण उनका सारा विज्ञान आच्‍छादित हो गया था। वे सब-के-सब अचेत से हो रहे थे। जैसे त्रेतायुग में राज्‍य का अपहरण हो जाने पर लक्ष्‍मणसहित श्रीरामचन्‍द्र जी के वन में चले जाने के बाद अयोध्‍या नगरी दु:ख से अत्‍यन्‍त आतुर हो बड़ी दुरवस्‍था को पहुँच गयी थी, वही दशा राज्‍य के अपहरण हो जाने पर भाइयों सहित युधिष्ठिर के वन में चले जाने से आज हमारे इस हस्तिनापुर की हो गयी है।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विदुर का कथन और पुरवासियों की कही हुई बातें सुनकर बन्‍धु-बान्‍धवों सहित राजा धृतराष्‍ट्र पुन: शोक से मूर्च्छित हो गये। तब दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि ने द्रोण को अपना द्वीप (आश्रय) माना और सम्‍पूर्ण राज्‍य उनके चरणों में समर्पित कर दिया। उस समय द्रोणाचार्य ने अमर्षशील दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण तथा अन्‍य सब भरतवंशियों से कहा- ‘पाण्‍डव देवताओं के पुत्र हैं, अत: ब्राह्मण लोग उन्‍हें अवश्‍य बतलाते हैं। मैं यथाशक्ति सम्‍पूर्ण हृदय से तुम्‍हारे अनुकूल प्रयत्‍न करता हुआ तुम्‍हारा साथ दूँगा। भक्तिपूर्वक अपनी शरण में आये हुए इन राजाओं सहित धृतराष्ट्रपुत्रों का परित्‍याग करने का साहस नहीं कर सकता। दैव ही सबसे प्रबल है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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