महाभारत सभा पर्व अध्याय 80 श्लोक 40-52

अशीतितम (80) अध्‍याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद


'पाण्डव जूए में पराजित होकर धर्म के अनुसार वन में गये हैं। वे वहाँ वर्षों तक रहेंगे। वन में पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करके जब वे क्रोध और अमर्ष के वशीभूत हो यहाँ लौटेंगे, उस समय वैर का बदला अवश्‍य लेंगे। उनका वह प्रतीकार हमारे लिये महान् दु:ख का कारण होगा। राजन्! मैंने मैत्री के विषय को लेकर कलह प्रारम्‍भ होने पर राजा द्रुपद को उनके राज्‍य से भ्रष्‍ट किया था; भारत! इससे दुखी होकर उन्‍होंने मेरे वध के लिये पुत्र प्राप्‍त करने की इच्‍छा से एक यज्ञ का आयोजन किया। याज और उपयाज की तपस्‍या से उन्‍होंने अग्नि से धृष्टद्युम्न और वेदी के मध्‍यभाग से सुन्‍दरी द्रौपदी को प्राप्‍त किया। धृष्टद्युम्न तो सम्‍बन्‍ध की दृष्टि से कुन्‍तीपुत्रों का साला ही है, अत: सदा उनका प्रिय करने में लगा रहता है, उसी से मुझे भय है। उसके शरीर की कान्ति अग्नि की ज्‍वाला के समान उद्भासित होती है। वह देवता का दिया हुआ पुत्र है और धनुष, बाण तथा कवच के साथ प्रकट हुआ है। मरणधर्मा मनुष्‍य होने के कारण मुझे अब उससे महान् भय लगता है। शत्रुवीरों का संहार करने वाला द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न पाण्‍डवों के पक्ष का पोषक हो गया है। रथियों और अति-रथियों की गणना में जिसका नाम सबसे पहले लिया जाता है, वह तरुण और वीर अर्जुन धृष्टद्युम्न के लिये, यदि मेरे साथ उसका युद्ध हुआ तो, लड़कर प्राण तक देने के लिये उद्यत हो जायेगा।

कौरवो! (अर्जुन के साथ मुझे लड़ना पड़े) इस पृथ्‍वी पर इससे बढ़कर महान् दु:ख मेरे लिये और क्‍या हो सकता है? धृष्टद्युम्न द्रोण की मौत है, यह बात सर्वत्र फैल चुकी है। मेरे वध के लिये ही उसका जन्‍म हुआ है। यह भी सब लोगों ने सुन रखा है। धृष्टद्युम्न स्‍वयं भी संसार में अपनी वीरता के लिये विख्‍यात है। तुम्‍हारे लिये यह निश्‍चय ही बहुत उत्तम अवसर प्राप्‍त हुआ है। शीघ्र ही अपने कल्‍याण-साधन में लग जाओ। पाण्‍डवों को वनवास दे देने मात्र से तुम्‍हारा अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। यह राज्‍य तुम लोगों को लिये शीतकाल में होने वाली ताड़ के पेड़ की छाया के समान दो ही घड़ी तक सुख देने वाला है। अब तुम बडे़-बड़े यज्ञ करो, मनमाने भोग भोगो और इच्‍छानुसार दान कर लो। आज से चौदहवें वर्ष में तुम्‍हें बहुत बड़ी मार-काट का सामना करना पड़ेगा’।

द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा- ‘विदुर! गुरु द्रोणाचार्य ने ठीक कहा है। तुम पाण्‍डवों को लौटा लाओ। यदि वे न लौटें तो वे अस्त्र-शस्त्रों से युक्‍त रथियों और पैदल सेनाओं से सुरिक्षत और भोग सामग्री से सम्पन्न हो सत्‍कारपूर्वक वन में भ्रमण के लिये जायँ; क्‍योंकि वे भी मेरे पुत्र ही हैं’।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में विदुर, धृतराष्ट्र और द्रोण के वचनविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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