ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ है 'ब्रह्म (वेद अथवा ज्ञान) की प्राप्ति का आचरण।' इसका रूढ़ प्रयोग विद्यार्थी जीवन के अर्थ में होता है। आर्य जीवन के चार आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्य है, जो विद्यार्थी जीवन की अवस्था का द्योतक है। प्राचीन समय से ही भारत में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्त्व रहा है। कभी-कभी प्रौढ़ और वृद्ध लोग भी छात्रजीवन का निर्वाह समय-समय पर किया करते थे, जैसा कि आरुणि[1] की कथा से ज्ञात होता है। ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ स्त्रीचिन्तन, दर्शन, स्पर्श आदि का सर्वथा त्याग है, इस प्रकार से ही पठन, भजन, ध्यान की ओर मनोनिवेश सफल होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (बृहदारण्यक उपनिषद 6.1.6)
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