महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 22-46

प्रथम (1) अध्‍याय: महाप्रस्‍थानिक पर्व

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महाभारत: महाप्रस्‍थानिक पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद


पहले जूए में परास्त होकर पांडव लोग जिस प्रकार वन में गये थे, उसी प्रकार उस दिन द्रौपदी सहित उन नरोत्तम पांडवों को इस प्रकार जाते देख नगर की सभी स्त्रियाँ रोने लगीं। परन्तु उन सभी भाइयों को इस यात्रा से महान हर्ष हुआ। युधिष्ठिर का अभिप्राय जान और वृष्णिवंशियों का संहार देखकर पाँचों भाई पांडव, द्रौपदी और एक कुत्ता- ये सब साथ-साथ चले। उन छहों को साथ लेकर सातवें राजा युधिष्ठिर जब हस्तिनापुर से बाहर निकले, तब नगरनिवासी प्रजा और अन्त:पुर की स्त्रियाँ उन्हें बहुत दूर तक पहुँचाने गयीं; किंतु कोई भी मनुष्य राजा युधिष्ठिर से यह नहीं कह सका कि आप लौट चलिये। धीरे-धीरे समस्त पुरवासी और कृपाचार्य आदि युयुत्सु को घेरकर उनके साथ ही लौट आये। जनमेजय! नागराज की कन्या उलूपी उसी समय गंगा जी में समा गयी। चित्रांगदा मणिपुर नगर में चली गयी तथा शेष माताएँ परीक्षित को घेरे हुए पीछे लौट आयीं।

कुरुनन्दन! तदनन्तर महात्मा पांडव और यशस्विनी द्रौपदी देवी सब-के-सब उपवास का व्रत लेकर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके चल दिये। वे सब-के-सब योगयुक्‍त महात्मा तथा त्यागधर्म का पालन करने वाले थे। उन्होंने अनेक देशों, नदियों और समुद्रों की यात्रा की। आगे-आगे युधिष्ठिर चलते थे। उनके पीछे भीमसेन थे। भीमसेन के भी पीछे अर्जुन थे और उनके भी पीछे क्रमश: नकुल और सहदेव चल रहे थे। भरतश्रेष्ठ! इन सब के पीछे सुन्दर शरीर वाली, श्‍यामवर्णा, कमलदललोचना, युवतियों में श्रेष्ठ द्रौपदी चल रही थी। वन को प्रस्थित हुए पांडवों के पीछे एक कुत्ता भी चला जा रहा था। क्रमश: चलते हुए वे वीर पांडव लाल सागर के तट पर जा पहुँचे।

महाराज! अर्जुन ने दिव्यरत्न के लोभ से अभी तक अपने दिव्य गाण्डीव धनुष तथा दोनों अक्षय तूणीरों का परित्याग नहीं किया था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने पर्वत की भाँति मार्ग रोककर सामने खड़े हुए पुरुषरूपधारी साक्षात अग्निदेव को देखा। तब सात प्रकार की ज्‍वालारूप जिह्वाओं से सुशोभित होने वाले उन अग्निदेव ने पांडवों से इस प्रकार कहा- "वीर पांडुकुमारों! मुझे अग्नि समझो। महाबाहु युधिष्ठिर! शत्रुसंतापी भीमसेन! अर्जुन! और वीर अश्विनीकुमारों! तुम सब लोग मेरी इस बात पर ध्‍यान दो। कुरुश्रेष्ठवीरों! मैं अग्नि हूँ। मैंने ही अर्जुन तथा नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के प्रभाव से खाण्डव वन को जलाया था। तुम्‍हारे भाई अर्जुन को चाहिये कि ये इस उत्तम आयुध गाण्डीव धनुष को त्यागकर वन में जायें। अब इन्हें इसकी कोई आवश्‍यकता नहीं है। पहले जो चक्ररत्न महात्मा श्रीकृष्ण के हाथ में था, वह चला गया। वह पुन: समय आने पर उनके हाथ में जायेगा। यह गाण्डीव धनुष सब प्रकार के धनुषों में श्रेष्ठ है। इसे पहले मैं अर्जुन के लिये ही वरुण से माँगकर ले आया था। अब पुन: इसे वरुण को वापस कर देना चाहिये।" यह सुनकर उन सब भाइयों ने अर्जुन को वह धनुष त्याग देने के लिये कहा। तब अर्जुन ने वह धनुष और दोनों अक्षय तरकस पानी में फेंक दिये।

भरतश्रेष्ठ! इसके बाद अग्निदेव वहीं अन्तर्धान हो गये और पांडववीर वहाँ से दक्षिणाभिमुख होकर चल दिये। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर वे लवण समुद्र के उत्तर तट पर होते हुए दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर अग्रसर होने लगे। इसके बाद वे केवल पश्चिम दिशा की ओर मुड़ गये। आगे जाकर उन्होंने समुद्र में डूबी हुई द्वारकापुरी को देखा। फिर योगधर्म में स्थित हुए भरतभूषण पांडवों ने वहाँ से लौटकर पृथ्‍वी की परिक्रमा पूरी करने की इच्‍छा से उत्तर दिशा की ओर यात्रा की।


इस प्रकार श्रीमहाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व में पहला अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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