महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 17 श्लोक 21-39

सप्तदश (17) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद
  • विभिन्‍न देशों से आये हुए दस हजार श्रेष्‍ठ महारथी भी वहाँ शपथ लेने के लिये उठकर गये। (21)
  • उन सब ने पृथक-पृथक अग्निदेव की पूजा करके हवन किया तथा कुश के चीर और विचित्र कवच धारण कर लिये। (22)
  • कवच बाँधकर कुश-चीर धारण कर लेने के पश्‍चात उन्‍होंने अपने अंगों में घी लगाया और 'मौर्वी' नाम‍क तृण विशेष की बनी हुई मेखला धारण की। वे सभी वीर पहले यज्ञ करके लाखों स्‍वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा में बाँट चुके थे। (23)
  • उन सब ने पूर्वकाल में यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था, वे सभी पुत्रवान तथा पुण्‍यलोकों में जाने के अधिकारी थे, उन्‍होंने अपने कर्तव्‍यों को पूरा कर लिया था। वे हर्षपूर्वक युद्ध में अपने शरीर का त्‍याग करने को अद्यत थे और अपने आपको यश एवं विजय से संयुक्‍त करने जा रहे थे। (24)
  • ब्रह्मचर्य पालन, वेदों के स्‍वाध्‍याय तथा पर्याप्‍त दक्षिणा वाले यज्ञों के अनुष्‍ठान आदि साधनों से जिन पुण्‍यलोकों की प्राप्ति होती है, उन सब में वे उत्‍तम युद्ध के द्वारा ही शीघ्र पहुँचने की इच्‍छा रखते थे। (25)
  • ब्राह्मणों को भोजन आदि से तृप्‍त करके उन्‍हें अलग-अलग स्‍वर्णमुद्राओं, गौओं तथा वस्‍त्रों की दक्षिणा देकर परस्‍पर बातचीत करके उन्‍होंने वहाँ एकत्र हुए श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों द्वारा स्‍वस्तिवाचन कराया, आशीर्वाद प्राप्‍त किया और हर्षोल्‍लासपूर्वक निर्मल जल का स्‍पर्श करके अग्नि को प्रज्‍वलित किया। फिर समीप आकर युद्ध का व्रत ले अग्नि के सामने ही दृढ़ निश्‍चयपूर्वक प्रतिज्ञा की। (26-27)
  • उन सभी ने समस्‍त प्राणियों के सुनते हुए अर्जुन का वध करने के लिये प्रतिज्ञा की और उच्‍च स्‍वर से यह बात कही। (28)
  • यदि हम लोग अर्जुन को युद्ध में मारे बिना लौट आवें अथवा उनके बाणों से पीड़ित हो भय के कारण युद्ध से पराड़्मुख हो जायें तो हमें वे ही पापमय लोक प्राप्‍त हों जो व्रत का पालन न करने वाले, ब्रह्महत्‍यारे, मद्य पीने वाले, गुरुस्‍त्रीगामी, ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाले, राजा की दी हुई जीविका को छीन लेने वाले, शरणागत को त्‍याग देने वाले, याचक को मारने वाले, घर में आग लगाने वाले, गोवध करने वाले, दूसरों की बुराई में लगे रहने वाले, ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाले, ऋतुकाल में भी मोहवश अपनी पत्‍नी के साथ समागन न करने वाले, श्राद्ध के दिन मैथुन करने वाले, अपनी जाति छिपाने वाले, धरोहर को हड़प लेने वाले, अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने वाले, नपुंसक के साथ युद्ध करने वाले, नीच पुरुषों का संग करने वाले, ईश्वर और परलोक पर विश्वास न करने वाले,अग्नि, माता और पिता की सेवा का परित्‍याग करने वाले, खेती को पैरों से कुचलकर नष्‍ट कर देने वाले, सूर्य की और मुँह करके मूत्र त्‍याग करने वाले तथा पापपरायण पुरुषों को प्राप्‍त होते हैं। (29-35)
  • 'यदि आज हम युद्ध में अर्जुन को मारकर लोक में असम्‍भव माने जाने वाले कर्म को भी कर लेंगे तो मनोवांछित पुण्‍यलोकों को प्राप्‍त करेंगे, इसमें संशय नहीं हैं।' (36)
  • राजन! ऐसा कहकर वे वीर संशप्‍तकगण उस समय अर्जुन को ललकारते हुए युद्धस्‍थल में दक्षिण दिशा की ओर जाकर खड़े हो गये। (37)
  • उन पुरुषसिंह संशप्‍तकों द्वारा ललकारे जाने पर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले कुन्‍तीकुमार अर्जुन तुरंत ही धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले। (38)
  • राजन! मेरा यह निश्चित व्रत है कि यदि कोई मुझे युद्ध के लिये बुलाये तो मैं पीछे नही हटूँगा। ये संशप्‍तक मुझे महायुद्ध में बुला रहे हैं। (39)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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