महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 73-101

द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 73-101 का हिन्दी अनुवाद


इसके बाद अत्यन्त दारुण ऐषीक पर्व की कथा है। फिर जलप्रदानिक और स्त्रीविलाप-पर्व आते हैं। तत्पश्चात श्राद्ध पर्व है, जिसमें मृत कौरवों की अन्त्येष्टि क्रिया का वर्णन है। उसके बाद ब्राह्मण-वेषधारी राक्षस चार्वाक के निग्रह का पर्व है। तदनन्तर धर्मबुद्धि सम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिर के अभिषेक का पर्व है तथा इसके पश्चात गृह प्रविभाग पर्व है। इसके बाद शान्ति पर्व प्रारम्भ होता हैः जिसमें राजधर्मनुशासन, आपद्धर्म और मोक्ष-धर्म पर्व हैं। फिर शुकप्रश्नाभिगमन, ब्राह्मप्रश्नानुशासन, दुर्वासा का प्रादुर्भाव और माया-संवाद पर्व हैं। इसके बाद धर्माधर्म का अनुशासन करने वाला अनुशासनिक पर्व है, तदनन्तर बुद्धिमान, भीष्म जी का स्वर्गारोहण पर्व है। अब आता है आश्वमेधिक पर्व, जो सम्पूर्ण पापों का नाशक है। उसी में अनुगीता पर्व है, जिसमें अध्यात्मज्ञान का सुन्दर निरूपण हुआ है। इसके बाद आश्रमवासिक, पुत्र दर्शन और तदनन्तर नारदागमन पर्व कहे गये हैं।

इसके बाद है अत्यन्त भयानक एवं दारुण मौसल-पर्व तत्पश्चात महाप्रस्थानपर्व और स्वर्गारोहण पर्व आते हैं। इसके बाद हरिवंश पर्व है, जिसे खिल (परिशिष्ट) पुराण भी कहते हैं, इसमें विष्णु पर्व, श्रीकृष्ण की बाल लीला एवं कंसवध का वर्णन है। इस खिलपर्व मे भविष्य पर्व भी कहा गया है, जो महान अद्भुत है। महात्मा श्रीव्यास जी ने इस प्रकार पूरे सौ पर्वों की रचना की है। सूतवंशशिरोमणि लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा जी व्यास जी की रचना पूर्ण हो जाने पर नैमिपारण्य-क्षेत्र में इन्हीं सौ पर्वों को अठारह पर्वों के रूप में सुव्यवस्थित करके ऋषियों के सामने कहा। इस प्रकार यहाँ संक्षेप से महाभारत के पर्वों का संग्रह बताया गया है। पौष्य, पौलोम, आस्तीक, आदि अंशावतरण, सम्भव, लाक्षागृह, हिडिम्ब-वध, बक-वध, चैत्ररथ, देवी द्रौपदी का स्वयंवर, क्षत्रिय धर्म से राजाओं पर विजयप्राप्तिपूर्वक वैवाहिक विधि, विदुरागमन, राजलम्भ, अर्जुन का वनवास, सुभद्रा का हरण, हरणाहरण, खाण्डवदाह तथा मय दानव से मिलने का प्रसंग- यहाँ तक की कथा आदि पर्व में कही गयी है।

पौष्य-पर्व में उत्तंक के माहात्मय का वर्णन है। पौलोमपर्व में भृगुवंश के विस्तार का वर्णन है। आस्तीकपर्व में सब नागों तथा गरुड़ की उत्पत्ति की कथा है। इसी पर्व में क्षीर सागर के मन्थन और उच्चै:श्रवा घोड़े के जन्म की भी कथा है। परीक्षितनन्दन राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ में न भरतवंशी महात्मा राजाओं की कथा कही गयी है। सम्भव पर्व में राजाओं के भिन्न-भिन्न प्रकार के जन्म सम्बन्धी वृत्तान्तों का वर्णन है। इसी में दूसरे शूरवीरों तथा महर्षि द्वैपायन के जन्म की कथा भी है। यहीं देवताओं के अंशावतरण की कथा कही गयी है। इसी पर्व में अत्यन्त प्रभावशाली दैत्य, दानव, यक्ष, नाग, सर्प, गन्धर्व और पक्षियों तथा अन्य विविध प्रकार के प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। परमतपस्वी महर्षि कण्व के आश्रम में दुष्यन्त के द्वारा शकुन्तला के गर्भ से भरत के जन्म की कथा भी इसी में है। उन्हीं महात्मा भरत के नाम से यह भरतवंश संसार मे प्रसिद्ध हुआ है।

इसके बाद महाराज शान्तनु के गृह में भागीरथी गंगा के गर्भ से महात्मा वसुओं की उत्पत्ति एवं फिर से उनके स्वर्ग में जाने का वर्णन किया गया है। इसी पर्व में वसुओं के तेज के अंशभृत भीष्म के जन्म की कथा भी है। उनकी राज्यभोग से निवृत्ति, आजीवन, ब्रह्मचर्यव्रत में स्थित रहने की प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञापालन, चित्रांगद की रक्षा और चित्रागंद की मृत्यु हो जाने पर छोटे भाई विचित्रवीर्य की रक्षा, उन्हें राज्य सर्म्पण, अणीमाण्डव्य के शाप से भगवान धर्म की विदुर के रूप में मनुष्यों में उत्पत्ति, श्रीकृष्ण द्वैपायन के वरदान के कारण धृतराष्ट्र एवं पाण्डु का जन्म और इसी प्रसंग में पाण्डवों की उत्पत्ति-कथा भी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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