चतुरशीतितमो (84) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुरशीतितमो अध्याय: श्लोक 33-58 का हिन्दी अनुवाद
तब महातेजस्वी भृगुनन्दन परशुराम जी ने वसिष्ठ, नारद, अगस्त्य और कश्यप जी के पास जाकर पूछा- 'विप्रवरों! मैं पवित्र होना चाहता हूँ। बताइये, कैसे किस कर्म के अनुष्ठान से अथवा किस दान से पवित्र हो सकता हूँ। साधुशिरोमणे! तपोधनो! यदि आप लोग मुझ पर अनुग्रह करना चाहते हों तो बतायें, मुझे पवित्र करने वाला साधन क्या है?' ऋषियों ने कहा- 'भृगुनन्दन! हमने सुना है कि पाप करने वाला मनुष्य यहाँ गाय, भूमि और धन का दान करके पवित्र हो जाता है। ब्रह्मर्षे! एक दूसरी वस्तु का दान भी सुनो। वह वस्तु सबसे बढ़कर पावन है। उसका आकार अत्यन्त अद्भुत और दिव्य है तथा वह अग्नि से उत्पन्न हुई है। उस वस्तु का नाम है- सुवर्ण। हमने सुना है कि पूर्वकाल में अग्नि ने सम्पूर्ण लोकों को भस्म करके अपने वीर्य से सुवर्ण को प्रकट किया था। उसी का दान करने से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी।' तदनन्तर कठोर व्रत का पालन करने वाले भगवान वसिष्ठ ने कहा- 'परशुराम! अग्नि के समान प्रकाशित होने वाला सुवर्ण जिस प्रकार प्रकट हुआ है, वह सुनो। सुवर्ण का दान तुम्हें उत्तम फल देगा, क्योंकि वह दान के लिये सर्वोत्तम बताया जाता है। महाबाहो! सुवर्ण का जो स्वरूप है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जिस प्रकार वह विशेष गुणकारी है, वह सब बता रहा हूँ, मुझसे सुनो। यह सुवर्ण अग्नि और सौमरूप है। इस बात को तुम निश्चित रूप से जान लो। बकरा, अग्नि, भेड़, वरुण तथा घोड़ा सूर्य का अंश है। ऐसी दृष्टि रखनी चाहिये। भृगुनन्दन! हाथी और मृग नागों के अंश हैं। भैंसे असुरों के अंश हैं। मुर्गा और सूअर राक्षसों के अंश हैं। इडा- गौ, दुग्ध और सोम- ये सब भूमिरूप ही हैं। ऐसी स्मृति है। सारे जगत का मन्थन करके जो तेज की राशि प्रकट हुई है, वही सुवर्ण है। अतः ब्रह्मर्षे। यह अज आदि सभी वस्तुओं से परम उत्तम रत्न है। इसलिये देवता, गन्धर्व, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच- ये सब प्रयत्नपूर्वक सुवर्ण धारण करते हैं। भृगुश्रेष्ठ! वे सोने के बने हुए मुकुट, बाजूबंद तथा अन्य नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित होते हैं। अतः नरश्रेष्ठ! जगत में भूमि, रत्न तथा गौ आदि जितनी पवित्र वस्तुऐं हैं, सुवर्ण को उन सबसे पवित्र माना गया है; इस बात को भलीभाँति जान लो। विभो! पृथ्वी, गौ तथा और जो कुछ भी दान किया जाता है, उन सबसे बढ़कर सुवर्ण का दान है। देवोपम! तेजस्वी! परशुराम! सुवर्ण अक्षय और पावन है, अतः तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों को यह उत्तम और पावन वस्तु ही दान करो। सब दक्षिणाओं में सुवर्णदान का ही विधान है; अतः जो सुवर्ण दान करते हैं, वे सब कुछ दान करने वाले होते हैं। जो सुवर्ण देते हैं, वे देवताओं का दान करते हैं; क्योंकि अग्नि सर्वदेवतामय है और सुवर्ण अग्नि का स्वरूप है। पुरुषसिंह! अतः सुवर्ण का दान करने वाले पुरुषों ने सम्पूर्ण देवताओं का ही दान कर दिया- ऐसा माना जाता है। अतः विद्वान पुरुष सुवर्ण से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं मानते हैं। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ विप्रर्षे! मैं पुनः सुवर्ण का माहात्म्य बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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