षष्ठ (6) अध्याय: मौसल पर्व
महाभारत: मौसल पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मामा के महल में पहुँकर कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने देखा कि वीर महात्मा वसुदेव जी पुत्र शोक से दु:खी होकर पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। भरतनन्दन! चौड़ी छाती और विशाल भुजा वाले कुन्तीकुमार अर्जुन अपने शोकाकुल मामा की वह दशा देखकर अत्यन्त संतप्त हो उठे। उनके नेत्रों में आँसू भर आये और उन्होंने मामा के दोनों पैर पकड़ लिये। शत्रुघाती नरेश! महाबाहु आनकदुन्दुभि (वसुदेव) ने चाहा कि मैं अपने भानजे अर्जुन का मस्तक सूँघ लूँ; परंतु असमर्थतावश वे ऐसा न कर सके। महाबाहु बूढ़े वसुदेव जी ने अपनी दोनों भुजाओं से अर्जुन को खींचकर छाती से लगा लिया और अपने समस्त पुत्रों का स्मरण करके रोने लगे। फिर भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, दौहित्रों और मित्रों को भी याद करके अत्यन्त व्याकुल हो वे विलाप करने लगे। वसुदेव बोले- "अर्जुन! जिन वीरों ने सैकड़ों दैत्यों तथा राजाओं पर विजय पायी थी, उन्हें आज यहाँ मैं नहीं देख पा रहा हूँ तो भी मेरे प्राण नहीं निकलते। जान पड़ता है, मेरे लिये मृत्यु दुर्लभ है। अर्जुन! जो तुम्हारे प्रिय शिष्य थे और जिनका तुम बहुत सम्मान किया करते थे, उन्हीं दोनों (सात्यकि और प्रद्युम्न) के अन्याय से समस्त वृष्णिवंशी मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। कुरुश्रेष्ठ धनंजय! वृष्णि वंश के प्रमुख वीरों में जिन दो को ही अतिरथी माना जाता था तथा तुम भी चर्चा चलाकर जिनकी प्रंशसा के गीत गाते थे, वे श्रीकृष्ण के प्रीतिभाजन प्रद्युम्न और सात्यकि ही इस समय वृष्णिवंशियों के विनाश के प्रमुख कारण बने हैं। अथवा अर्जुन! इस विषय में मैं सात्यकि, कृतवर्मा, अक्रूर और प्रद्युम्न की निन्दा नहीं करूँगा। वास्तव में ऋषियों का शाप ही यादवों के इस सर्वनाश का प्रधान कारण है। कुन्तीनन्दन! जिन जगदीश्वर ने पराक्रम प्रकट करके केशी और कंस को देहबंधन से मुक्त कर दिया। बल का घमण्ड रखने वाले चेदिराज शिशुपाल, निषादपुत्र एकलव्य, कलिंगराज, मगध निवासी क्षत्रिय, गान्धार, काशिराज तथा मरुभूमि के राजाओं को भी यमलोक भेज दिया था, जिन्होंने पूर्व, दक्षिण तथा पर्वतीय प्रान्त के नरेशों का भी संहार कर डाला था, उन्हीं मधुसूदन ने बालकों की अनीति के कारण प्राप्त हुए इस संकट की उपेक्षा कर दी। तुम, देवर्षि नारद तथा अन्य महर्षि भी श्रीकृष्ण को पाप के सम्पर्क से रहित, सनातन, अच्युत परमेश्वररूप से जानते हैं। वे ही सर्वव्यापी अधोक्षज अपने कुटुम्बीजनों के इस विनाश को चुपचाप देखते रहे। परंतप अर्जुन! मेरे पुत्ररूप में अवतीर्ण हुए वे जगदीश्वर गांधारी तथा महर्षियों के शाप को पलटना नहीं चाहते थे, इसलिये उन्होंने सदा ही इस संकट की उपेक्षा की। परंतप! तुम्हारा पौत्र परीक्षित अश्वत्थामा द्वारा मार डाला गया था तो भी श्रीकृष्ण के तेज से वह जीवित हो गया। यह तो तुम लोगों की आंखों देखी घटना है। इतने शक्तिशाली होते हुए भी तुम्हारे सखा ने अपने इन भाई-बन्धुओं को प्राणसंकट से बचाने की इच्छा नहीं की। जब पुत्र, पौत्र, भाई और मित्र सभी एक दूसरे के हाथ से मरकर धराशायी हो गये, तब उन्हें उस अवस्था में देखकर श्रीकृष्ण मेरे पास आये और इस प्रकार बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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