तं स्यन्दसनमधिष्ठाय भवस्याममिततेजस:।।91।।
प्रादुश्चक्रे महारौद्रमस्त्रं सर्वास्त्रमघातनम्।
दीप्तं ब्रह्मशिरो नाम बाण: क्रुद्धोऽतिवीर्यवान्।।92।।
प्रदीप्ते ब्रह्मशिरसि नाम लोक: क्षोभमुपागमत्।
लोकसंरक्षणार्थे वै तत् सृष्टं ब्रह्मयोनिना।।93।।
तच्चंक्रेण निहत्यास्त्रं प्राह कृष्णस्त रस्विनम्।
लोके प्रख्याचतयशसं बाणमप्रतिमं रणे।।94।।
कत्थितानि क्वक ते तात बाण किं न विकत्थसे।
अयमस्मि स्थितो युद्धे युद्ध्यस्व पुरुषो भव।।95।।