हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्नवतितम अध्याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवादअरुणोदय-काल में वे वहीं चले गये, जहाँ नटों का स्थान था। प्रभावती नहीं चाहती थी कि वे एक क्षण के लिये भी उससे अलग हों तथापि किसी तरह उसने उस समय उन्हें विदा किया। प्रद्युम्न कमनीय रूप वाली उस प्राणवल्लभा प्रभावती का ही मन-ही-मन चिन्तन करते रहे। वे भीमवंशी यादवकुमार उस समय देवराज इन्द्र और भगवान श्रीकृष्ण के आदेश की प्रतीक्षा करते हुए अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ नटवेश में रहने लगे। वे महामनस्वी वीर अपने गूढ़ उद्देश्य को सर्वथा छिपाये रखने के लिये तत्पर होकर वज्रनाभ के त्रिलोक विजय-सम्बन्धी उद्योग की राह देखते थे। नरेश्वर! जब तक कश्यप मुनि का यज्ञ होता रहा, तब तक त्रैलोक्य-विजय के लिये प्रयत्नशील रहने वाले समस्त महामनस्वी धर्मपरायण देवताओं और असुरों में परस्पर कोई विरोध नहीं हुआ। इस तरह समय की प्रतीक्षा करते हुए वहाँ निवास करने वाले बुद्धिमान यादव वीरों के समक्ष वर्षा-ऋतु प्राप्त हुई, जो समस्त प्राणियों के लिये रमणीय एवं मनोहर है। मन के समान वेगशाली हंस उन महामनस्वी यादवकुमारों को प्रतिदिन इन्द्र और श्रीकृष्ण का समाचार दिया करते थे। प्रत्येक रात्रि को हंसों से सुरक्षित हुए महातेजस्वी प्रद्युम्न अपनी मनोअनुरूप भार्या प्रभावती के साथ रमण करते थे। नरेश्वर! इन्द्र की आज्ञा से वज्रपुर में निवास करने वाले हंसों से वह सारा नगर व्याप्त हो रहा था; परंतु काल से मोहित हुए दानव यह नहीं जानते थे कि वास्तव में वे हंस और वे नट कौन हैं? राजन! वीर रुक्मिणीकुमार दिन में भी हंस समुदाय से सुरक्षित हो छिपे रूप से प्रभावती के घर में रहते थे। कुरुनन्दन! माया से उनकी छाया मात्र नटों के स्थान में दिखायी देती थी। वे अपने आधे शरीर से प्रभावती का ही सेवन करते थे। उन महामनस्वी नटों की विनय, प्रणति, शील, लीला, चातुरी, सरलता और विद्वत्ता देखकर असुर सदा ही उन्हें चाहते रहते थे। उन असुरों की स्त्रियां भी यादवकुमारों के साथ आयी हुई सुन्दरियों के रूप, विलास, सुगन्ध, मनोहर बोली और श्रेष्ठ स्वभाव की सदा ही अभिलाषा करती थीं। वज्रनाभ के एक भाई था, जो सुनाभ नाम से विख्यात था। नरेश्वर! उसके दो पुत्रियां थीं, जो सुन्दर रूप और उत्तम गुणों से युक्त थीं। उनमें से एक का नाम चन्द्रवती और दूसरी का नाम गुणवती था। वे प्रतिदिन प्रभावती के महल में जाया करती थीं। उन दोनों ने वहाँ प्रभावती को रति में आसक्त देखा। सती-साध्वी प्रभावती का अपनी इन दोनों बहिनों पर बड़ा विश्वास था; अत: इन दोनों ने उससे पूछा- 'बहिन! तुम किसके साथ क्रीड़ा करती हो?' प्रभावती बोली- 'मेरे पास एक विद्या है, जिसका अध्ययन कर लेने पर वह रति के लिये शीघ्र ही मनोवांछित पति को ला देती है और सौभाग्य प्रदान करती है। अभिलषित पुरुष देवता हो या दानव, यह विद्या उसे तत्काल विवश करके अपने पास उसे ला देती है। अत: मैं उसी विद्या के प्रभाव से परम बुद्धिमान देवकुमार को अपना प्राणवल्लभ बनाकर उनके साथ रमण करती हूँ। देखो, मेरे या मेरी विद्या के प्रभाव से प्रद्युम्न मेरे अत्यन्त प्रिय हो गये हैं।' उनके रूप और यौवन की सम्पत्ति देखकर उन दोनों बहनों को बड़ा विस्मय हुआ। फिर मनोहर हास्य वाली सुन्दरी प्रभावती ने उन दोनों बहनों से यह समयोचित बात कही- 'देवता सदा धर्म में तत्पर रहते हैं और महान असुर दम्भी होते हैं। देवता तपस्या में अनुरक्त होते हैं और महान असुर सुख में आसक्त। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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