हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 87 श्लोक 20-39

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्‍ताशीतितम अध्याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद


भरतनन्‍दन! उन महादेव जी के प्रभाव से असुरों द्वारा उखाड़कर फेंके गये उसके घोर शिखर पर असुरों को ही मार डालते थे। जनेश्‍वर! जो महान् असुर मन्‍दराचल के शिखरों को फेंककर भागते थे, वे उन्‍हीं शिखरों पर स्‍वस्‍थ भाव से खड़े थे, वे महागिरि मन्‍दर के उन शिखरों द्वारा नहीं मारे जाते थे। तब अन्‍धक ने अपनी उस सेना को कुचली गयी देख उस समय रोषपूर्वक महान् सिंहनाद करके इस प्रकार कहा- 'अचल! तेरे साथ युद्ध करने से क्‍या लाभ? तूने रणभूमि में दैत्‍यों को छल से मारा है। अब मैं उस पुरुष को ललकारता हूँ, जिसका यह वन है। वह युद्ध के लिये मेरे सामने उपस्थित हो’। अन्‍धकासुर के ऐसा कहने पर उसे मार डालने की इच्‍छा से भगवान महेश्‍वर देव त्रिशूल उठाये अपने वृषभ के द्वारा वहाँ आ पहुँचे। भूतगणों के स्‍वामी बुद्धिमान भगवान त्रिलोचन प्रमथगणों तथा भूत-समूहों से घिरे हुए थे। भगवान शंकर के रुष्ट होने पर सारी त्रिलोकी कांप उठी। नदियां अपने प्रवाह के विपरीत उद्गम स्‍थान की ओर बहने लगी। उनका जल खौल उठा।

जनेश्‍वर! महादेव जी के तेज से सम्‍पूर्ण दिशाओं में अग्निदाह फैल गये और समस्‍त ग्रह विपरीत होकर परस्‍पर जूझने लगे। कुरुकुल धुरंधर वीर! उस समय सारे पर्वत हिलने लगे और उनके ऊपर मेघ धूम युक्‍त अंगारों की वर्षा करने लगे। चन्‍द्रमा की शीतल किरणें गरम हो गयीं। सूर्य की प्रभा ठंडी पड़ गयी। ब्रह्मवादी मुनियों का सारा ब्रह्मज्ञान भूल गया। निष्‍पाप नरेश्‍वर! घोड़ियों के पेट से गाय के बछड़े पैदा होने लगे और गौएं घोड़ों को जन्‍म देने लगीं। पृथ्‍वी पर बिना काटे ही बहुत-से वृक्ष भस्‍म होकर गिर पड़े। सांड़ गौओं को सताने लगे। गौएं भी सांड़ों पर चढ़ जाती थी। राक्षस, यातुधान और पिशाच- ये सब-के-सब (प्राणियों को कष्‍ट देने लगे)। संसार की इस प्रकार विपरीत अवस्‍था देख भगवान शंकर ने प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी अपना त्रिशूल छोड़ा। भगवान शंकर का छोड़ा हुआ वह दु:सह अस्‍त्र अन्‍धकासुर की छाती पर गिरा। उसने साधुओं के लिये कण्‍टक रूप भयंकर अन्‍धकासुर को जलाकर भस्‍म कर दिया।

तदनन्‍तर समस्‍त देवगण और तपोधन मुनि जगत के शत्रु अन्‍धकासुर के मारे जाने पर भगवान शंकर की स्‍तुति करने लगे। नरेन्‍द्र! देवताओं की दुन्‍दुभियां बज उठी। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और तीनों लोकों के प्राणियों ने निश्चिन्‍त होकर संतोष की सांस ली। उस समय देव गन्‍धर्व गाने और अप्‍सराएं नाचने लगी। ब्राह्मण लोग वेदों का जप, स्‍वाध्‍याय तथा यज्ञों का अनुष्‍ठान करने लगे। ग्रह स्‍वाभाविक स्थिति में आ गये। नदियां पहले के समान बहने लगीं। जल में आग का जलना बंद हो गया और सारी दिशाएं प्रसन्‍न हो गयीं। पर्वतश्रेष्‍ठ मन्‍दराचल अपने सम्‍पूर्ण तेज की वृद्धि होने के कारण परम शोभा से सम्‍पन्‍न हो पुन: पूर्ववत प्रकाशित होने लगा। सबके प्रभु उमा सहित भगवान शंकर इन्‍द्र आदि देवताओं को धर्मत: सर्वत्र घूमने-फिरने योग्‍य बनाकर पारिजात वन में विहार करने लगे।

इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में अन्धकवध विषयक सत्तासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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