हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 85 श्लोक 43-63

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद

वीर! यह सब निकुम्भ का चरित्र मैंने कह सुनाया। अब तुम इसके वध के लिये जल्‍दी करो। यह कथा पीछे होती रहेगी’। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि वह रणदुर्जय असुर उस षट्पुर नाम वाली गुफा में जा घुसा। कुरुनन्‍दन! उसके जाने के मार्ग का अनुसंधान करके भगवान् मधुसूदन भी उस घोर, दुर्जय षट्पुर नाम वाली गुफा में घुस गये। वहाँ चन्‍द्रमा और सूर्य का प्रकाश नहीं था। वह गुफा अपने ही तेज से प्रकाशित होती और वहाँ के निवासियों को सुख-दु:ख, गर्मी-सर्दी आदि प्रदान करती थी। नरेश्‍वर! उस गुफा में प्रवेश करके भगवान श्रीकृष्‍ण ने निकुम्भ द्वारा बंदी बनाये गये यादव नरेशों को देखा; फिर वे उस घोर असुर निकुम्भ के साथ युद्ध करने लगे। महात्‍मा श्रीकृष्‍ण की अनुमति से बलराम आदि समस्‍त यादव वीर भी उस समय उनके पीछे-पीछे उस गुफा में जा घुसे तथा समस्‍त पाण्‍डव भी एक साथ ही उसमें घुस आये। निकुम्भ तो श्रीकृष्‍ण के साथ युद्ध करने लगा।

इधर श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्न उन सब यादवों को छुड़ा लाये, जिन्‍हें निकुम्भ ने पहले ही बंदी बना लिया था। प्रद्युम्न द्वारा छुड़ाये गये वे समस्‍त वीर प्रसन्‍नचित्‍त हो निकुम्भ का वध करने की इच्‍छा से उस स्‍थान पर गये, जहाँ भगवान श्रीकृष्‍ण युद्ध कर रहे थे। तब वे राजा को प्रद्युम्न द्वारा कैद किये गये थे, उन काम स्‍वरूप प्रद्युम्न से बार-बार कहने लगे- ‘वीर! हमें मुक्‍त कर दो।’ तब प्रतापी वीर रुक्मिणीकुमार ने उन सबको छोड़ दिया। वे समस्‍त वीर नरेश अपना मुँह नीचे किये चुपचाप खड़े थे। उनकी श्री नष्‍ट हो गयी थी। वे उस समय लज्‍जा में डूबे हुए थे। पापहारी भगवान् गोविन्‍द विजय के लिये प्रयत्‍न करने वाले अपने घोर शत्रु निकुम्भ ने परिघ द्वारा भगवान श्रीकृष्‍ण बड़े जोर का आघात किया तथा श्रीकृष्‍ण ने भी गदा द्वारा निकुम्भ को बारम्बार गहरी चोट पहुँचायी। तब एक-दूसरे के द्वारा अच्‍छी तरह किये गये प्रहारों से आहत होकर वे दोनों ही मूर्च्छित हो गये। इससे पाण्‍डवों और यादवों को अत्‍यन्‍त व्‍यथित हुआ देख वहाँ खड़े हुए मुनिगण श्रीकृष्‍ण के हित की कामना से ‘जप’ करने लगे तथा उन्‍होंने वेदोक्‍त स्‍तुतियों द्वारा परमात्‍मा श्रीकृष्‍ण का स्‍तवन किया। तब भगवान केशव सजग हो उठे, मानो उनमें पुन: प्राण लौट आये हों। तदनन्‍तर वह दानव भी होश में आ गया। फिर वे दोनों वीर युद्ध के लिये उद्यत हो गये।

भारत! वे दोनों रणोन्‍मत्‍त वीर सांड़ों के समान हँकड़ते, हाथियों के समान चिग्‍घाड़ते और भेड़ियों के समान दहाड़ते हुए क्रोधपूर्वक परस्‍पर प्रहार करने लगे। नरेश्‍वर! उस समय आकाशवाणी ने भगवान श्रीकृष्‍ण से कहा- ‘जनार्दन! यह देवताओं और ब्राह्मणों के लिये कण्‍टकरूप है। तुम अपने चक्र द्वारा इसको नष्‍ट कर दो’। यह बात स्‍वयं भगवान बिल्‍वोदकेश्‍वरदेव ने कही थी। फिर उन्‍होंने इस प्रकार कहा- ‘महाबली श्रीकृष्‍ण! तुम (इस दैत्‍य को मारकर) महान धर्म और विशाल यश प्राप्‍त करो’। तब ‘जो आज्ञा’ कहकर सत्‍पुरुषों के आश्रय दाता जगदीश्‍वर श्रीकृष्‍ण ने भगवान बिल्‍वोदकेश्‍वर को नमस्‍कार किया और दैत्‍यकुल का विनाश करने वाले सुदर्शन चक्र को निकुम्भ पर छोड़ दिया। श्रीकृष्‍ण के हाथ से छूटे हुए सूर्यमण्‍डल के समान तेजस्‍वी चक्र ने उत्‍तम कुण्‍डलों से अलंकृत निकुम्भ का मस्‍तक काट डाला। कान्तिमान कुण्‍डलों से अलंकृत उसका वह मस्‍तक पृथ्‍वी पर गिर पड़ा, मानो मेघ के दर्शन से उन्‍मत्‍त हुआ कोई मोर पर्वत के शिखर से धरती पर आ गिरा हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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