हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 85 श्लोक 20-42

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद

ऐसा निश्चय करके वह महाबली असुर वहीं अन्‍तर्धान हो गया और युद्ध के लिये उस स्‍थान पर गया, जहाँ महाबली श्रीकृष्‍ण विराजमान थे। उसे वहाँ गया हुआ देख बलनाशन इन्‍द्र ऐरावत की पीठ पर बैठकर वह युद्ध देखने के लिये आये। उस समय वे देवताओं के साथ बहुत प्रसन्‍न थे। धर्मात्‍मा इन्‍द्र ने ‘साधु-साधु (वाह-वाह)’ कहकर संतुष्‍ट हो अपने पुत्र जयन्‍त को हृदय से लगा लिया और मूर्च्‍छा दूर हो जाने पर प्रवर से भी गले मिले। उस समय रणदुर्जय जयन्‍त की युद्ध में विजय देखकर इन्‍द्र की आज्ञा से देवताओं की दुन्‍दुभियां बजने लगी। निकुम्‍भ ने देखा, युद्ध में जिन पर विजय पाना अत्‍यन्‍त कठिन है, वे श्रीकृष्‍ण यज्ञ मण्‍डप से थोड़ी ही दूर पर अर्जुन के साथ खड़े हैं। फिर तो उसने बड़े जोर से सिंहनाद करके अत्‍यन्‍त भयंकर परिघ द्वारा पक्षिराज गरुड़, बलराम और सात्‍यकि पर प्रहार किया। तत्‍पश्‍चात उस पराक्रमी असुर ने श्रीकृष्‍ण, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा श्रीकृष्‍ण कुमार साम्ब और प्रद्युम्न पर भी प्रहार किया।

भरतनन्‍दन! वह शीघ्रकारी दैत्‍य माया द्वारा युद्ध कर रहा था; इसलिये सम्‍पूर्ण शस्‍त्रों के ज्ञान में कुशल वे समस्‍त वीर उसे देख नहीं पाते थे। जब वे उस असुर को नहीं देख सके, तब भगवान् श्रीकृष्‍ण ने प्रमथगणों के स्‍वामी बिल्‍वोदकेश्‍वर देव का स्‍मरण किया। फिर तुरंत ही अत्‍यंत तेजस्‍वी बिल्‍वोदकेश्‍वर के प्रभाव से उन सबने मायावियों में श्रेष्‍ठ निकुम्‍भ को देखा। उसका शरीर कैलास-शिखर के समान विशाल था। वह इस प्रकार खड़ा था, मानो सबको ग्रस लेगा। वह अपने बन्‍धु-बान्‍धवों का नाश करने वाले वैरी श्रीकृष्‍ण को युद्ध के लिये ललकार रहा था। उस समय जिनके गाण्‍डीव धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ी हुई थी, उन अर्जुन ने रथ का भेदन करने वाले बाणों द्वारा उसके परिघ और अंगों पर बारम्‍बार प्रहार किया। नरेश्‍वर! अर्जुन के वे सभी बाण जो शिला पर तेज किये गये थे, उसके परिघ और अंगों से टकराकर टूटकर अथवा मुड़कर पृथ्‍वी पर गिर पड़े। भरतनन्‍दन! उन दिव्यास्त्र युक्‍त बाणों को निष्‍फल हुआ देख वीर अर्जुन ने श्रीकृष्‍ण से पूछा- ‘यह क्‍या हुआ? देवकीनन्‍दन! मेरे वज्रतुल्‍य बाण पर्वतों को भी विदीर्ण कर डालते हैं (परंतु यहाँ निष्‍फल हो गये) यह क्‍या बात है? इस विषय में मुझे महान आश्‍चर्य हो रहा है’।

भारत! तब श्रीकृष्‍ण ने हँसते हुए-से कहा- ‘कुन्‍तीनन्‍दन! यह निकुम्‍भ एक महान भूत है। इसका परिचय विस्‍तारपूर्वक सुनो। पूर्वकाल में इस दुर्जय देवद्रोही महान् असुर ने उत्तर-कुरु में जाकर एक लाख वर्षों तक तपस्‍या की थी। तब भगवान शिव ने इसे इच्‍छानुसार वर मांगने के लिये आज्ञा दी। उस समय इसने महादेव जी से तीन रूप मांगे, जो देवताओं और असुरों के लिये अवध्‍य हो। तब महान देव भगवान् वृषभध्‍वज ने इससे कहा- महान असुर! यदि तुम मेरा, ब्राह्मणों का अथवा भगवान विष्‍णु का अप्रिय करोगे तो श्रीहरि के हाथ से मारे जाओगे। दूसरे किसी के द्वारा नहीं; क्‍योंकि मैं और विष्‍णु दोनों ब्राह्मणों के हितैषी हैं। उनके परम आश्रय हैं। पाण्‍डुनन्‍दन! वही यह तीन शरीर धारण करने वाला अत्‍यन्‍त प्रमथनशील दानव है, जो वरदान पाकर मदमत्‍त हो उठा है। यह सम्‍पूर्ण शस्‍त्रों द्वारा अवध्‍य है। भानुमती के अपहरण के समय मैंने इसके एक शरीर को नष्‍ट कर दिया था। यह अवध्‍य षट्पुर इस दुरात्‍मा का दूसरा शरीर है। तथा इसका एक तपस्‍वी शरीर दितिदेवी की सेवा में संलग्‍न रहता है। जिससे यह षट्पुर में निवास करता है, वह इसका घोर शरीर दूसरा ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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