हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 40-55 का हिन्दी अनुवाद
राजन! काल सबसे अधिक बलवान है। काल से परे जो मोक्ष रूप गति है, वह दुर्विज्ञेय है। उस पर और अपर (पुरुष और प्रकृति)- के अन्तर को जानने वाले समदर्शी पुरुष ही प्राप्त होते हैं। वही काल की परमगति है, जिससे सब-कुछ काल के अधीन प्रतीत होता है। तात! अब मैं जो कुछ कहता हूं, मेरे बताये हुए उस कार्य को आप करें। नरेश्वर! मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है। न तो मैं राज्य का अभिलाषी हूँ और न राज्य के लोभ से मैंने कंस को मारा ही है। मैंने तो केवल लोकहित के लिये और कीर्ति के लिये भाई सहित तुम्हारे पुत्र को मार गिराया है। जो इस कुल का विकृत (सड़ा हुआ) अंग था। मैं वही वनेचर होकर गोपों के साथ गौओं के बीच प्रसन्नतापूर्वक विचरूंगा, जैसे इच्छानुसार विचरने वाला हाथी वन में स्वच्छन्दक घूमता है मैं सत्य की शपथ खाकर इन बातों को सौ-सौ बार दुहराकर आपसे कहता हूं, मुझे राज्य से कोई काम नहीं है, आप इसका विज्ञापन कर दीजिये आप यदुवंशियों के अग्रगण्य स्वामी तथा मेरे लिये भी माननीय हैं, अत: आप ही राजा हो। नृपश्रेष्ठ! अपने राज्यों पर अपना अभिषेक कराइये, आपकी विजय हो यदि आपको मेरा प्रिय कार्य करना हो अथवा आपके मन में मेरी ओर से कोई व्यथा न हो तो मेरे द्वारा लौटाये गये इस राज्य को दीर्घकाल के लिये ग्रहण करें।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर उग्रसेन ने काेई उत्तर नहीं दिया। वे लज्जित होकर सिर झुकाएं चुपचाप खड़े रहे गये। उस समय धर्म के ज्ञाता गोविन्द ने राजा उग्रसेन को यादवों के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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