हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 32 श्लोक 40-54

Prev.png

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 40-55 का हिन्दी अनुवाद


यह भगवान की अदृश्य रूप से रहने वाली माया ही है, जिससे यह जगत मोहित हो जाता है, उसके स्वरूप को जानना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है। वास्तव में सुख और दु:ख की प्राप्ति में कर्म कारण है। (मनुष्य जो चिन्तित एवं व्यथित होता है, वह मायाजनित मोह ही है)। कंस अपने पूर्वकर्मों से प्रेरित होकर ही काल के द्वारा मारा गया है। मैं उसमें कारण नहीं हूं, काल और कर्म ही कारण हैं। तात! सारा चराचर जगत सूर्य और सोममय (अग्नीषोमात्मक) है। वह काल से मृत्यु को प्राप्त होकर फि‍र काल से ही जन्म ग्रहण करता है काल ही समस्त (प्राणियों के निग्रह और अनुग्रह में तत्पर है, इसलिये सम्पूर्ण भूत अपने ही दोषों में दग्ध‍ हुआ है। उसकी मृत्यु का कारण मैं नहीं, काल है। अथवा मैं निमित्त कारण हो सकता हूं, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि दूसरे निमित्तों का सहारा लेने वाला काल अकेला ही क्या करेगा।

राजन! काल सबसे अधिक बलवान है। काल से परे जो मोक्ष रूप गति है, वह दुर्विज्ञेय है। उस पर और अपर (पुरुष और प्रकृति)- के अन्तर को जानने वाले समदर्शी पुरुष ही प्राप्त होते हैं। वही काल की परमगति है, जिससे सब-कुछ काल के अधीन प्रतीत होता है। तात! अब मैं जो कुछ कहता हूं, मेरे बताये हुए उस कार्य को आप करें। नरेश्वर! मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है। न तो मैं राज्य का अभिलाषी हूँ और न राज्य के लोभ से मैंने कंस को मारा ही है। मैंने तो केवल लोकहित के लिये और कीर्ति के लिये भाई सहित तुम्हारे पुत्र को मार गिराया है।

जो इस कुल का विकृत (सड़ा हुआ) अंग था। मैं वही वनेचर होकर गोपों के साथ गौओं के बीच प्रसन्नतापूर्वक विचरूंगा, जैसे इच्छानुसार विचरने वाला हाथी वन में स्वच्छन्दक घूमता है मैं सत्य की शपथ खाकर इन बातों को सौ-सौ बार दुहराकर आपसे कहता हूं, मुझे राज्य से कोई काम नहीं है, आप इसका विज्ञापन कर दीजिये आप यदुवंशियों के अग्रगण्य स्वामी तथा मेरे लिये भी माननीय हैं, अत: आप ही राजा हो। नृपश्रेष्ठ! अपने राज्यों पर अपना अभिषेक कराइये, आपकी विजय हो यदि आपको मेरा प्रिय कार्य करना हो अथवा आपके मन में मेरी ओर से कोई व्यथा न हो तो मेरे द्वारा लौटाये गये इस राज्य को दीर्घकाल के लिये ग्रहण करें।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर उग्रसेन ने काेई उत्तर नहीं दिया। वे लज्जित होकर सिर झुकाएं चुपचाप खड़े रहे गये। उस समय धर्म के ज्ञाता गोविन्द ने राजा उग्रसेन को यादवों के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया।

Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः