हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 28 श्लोक 35-53

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्‍टाविंश अध्याय: श्लोक 35-53 का हिन्दी अनुवाद

साथ ही ये जो-जो मूर्ख यादव श्रीकृष्‍ण का भरोसा रखते हैं, वे सब श्रीकृष्‍ण को मारा गया देख हताश होकर विनाश के गर्त में गिर जाएंगे। इन दोनों को गजराज कुवलयापीड अथवा मल्‍लों के द्वारा मरवाकर या स्‍वयं ही मारकर मथुरापुरी को यादवों से सूनी करके मैं सुखपूर्वक विचरुँगा। मैंने यादव-कुल का भार वहन करने वाले अपने पिता को ही त्‍याग दिया। कृष्‍ण का पक्ष लेने वाले जो शेष यादव हैं, वे भी मेरे द्वारा परित्‍यक्‍त हो चुके हैं। यथार्थ बात यह है कि पुत्र की इच्‍छा रखने वाले इस अल्‍प पराक्रमी मानव उग्रसेन के द्वारा मेरा जन्‍म नहीं हुआ है जैसा कि नारदजी ने मुझे बताया है’। महावत ने पूछा- 'राजन! पूर्वकाल में देवर्षि नारद ने कैसी बात बतायी थी? शत्रुदमन! यह तो मैंने आपके मुख से बड़े आश्‍चर्य की बात सुनी है। यदि आपके पिता उग्रसेन नहीं हैं तो उनके बिना दूसरे से आपका जन्‍म कैसे हुआ है? महाराज! आपकी माता ने यह ऐसा कुत्‍सित कर्म कैसे किया? दूसरी साधारण स्‍त्री भी ऐसा घृणित कार्य नहीं कर सकती है; फिर उन्‍होंने कैसे किया? मैं विस्‍तारपूर्वक इस प्रसंग को सुनना चाहता हूँ। इसे जानने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है।'

कंस ने कहा– 'महावत! यदि तुम्‍हारा विचार इस रहस्‍य को सुनने का ही है तो प्रभावशाली महर्षि नारद बाबा ने मुझसे जैसा कहा था, उसी तरह मैं इस प्रसंग का वर्णन करुँगा। वे मुनि नारद देवराज इन्‍द्र के सखा हैं। एक दिन चन्‍द्रमा की किरणों के समान श्‍वेत वस्‍त्र पहने और सिर पर जटामण्‍डल का भार धारण किये वे इन्‍द्र भवन से मेरे यहाँ आये। उनके कंधे पर काले मृगचर्म की चादर पड़ी थी। वे सुवर्णमय याज्ञोपवीत से विभूषित थे और दण्‍ड-कमण्‍डलु धारण किये दूसरे प्रजापति के समान जान पड़ते थे। नारद जी वेदों के विद्वान तो हैं ही, गान्‍धर्ववेद (संगीत-विद्या) के भी पूर्ण पंडित हैं, अत: चारों वेदों का गान किया करते हैं। ब्रह्मलोक में विचरने वाले वे अविनाशी देवर्षि नारद ही मेरे यहाँ पधारे थे। अपने यहाँ आये हुए उन महर्षि को देखकर मैंने पाद्य अर्घ्य और आसन समर्पित करके उनकी विधिपूर्वक पूजा की और महल के भीतर ले जाकर उन्‍हें बिठाया। जब सुखपूर्वक बैठे गये, तब मुझसे कुशल-प्रश्‍न करने के अनन्‍तर प्रसन्नचित हुए उन शुद्ध अन्‍त:करण वाले देवर्षि ने इस प्रकार कहा। नारद जी बोले– वीर! तुमने शास्‍त्रीय विधि के अनुसार मेरा पूजन किया है; अत: मेरी यह एक बात सुनो और इसे ग्रहण करो। सुवर्णमय मेरुपर्वत देवताओं का निवास-स्‍थान है। उस पर्वत के शिखर पर एक दिन देवताओं का समाज जुटा हुआ था। उसी में मैं भी गया था। वहाँ देवतालोग अनुचरों सहित तुम्‍हारे वध के अत्‍यन्‍त दारुण उपाय पर विचार कर रहे थे। वहीं उनके मुख से यह बात मैंने सुनी थी। कंस! इस देवकी का जो आठवाँ गर्भ हैं, उसमें विश्ववन्‍दित भगवान विष्णु निवास करेंगे; अत: यह गर्भ तुम्‍हारी मृत्‍यु का कारण होगा। वे विष्‍णु ही देवताओं के सर्वस्‍व हैं। स्‍वर्गलोक के आश्रय हैं तथा देवगणों के परम रहस्‍य हैं। वे ही तुम्‍हारी मृत्‍यु में कारण होंगे। कंस! तुम देवकी के गर्भों को मार गिराने के लिये यत्न करो। शत्रु दुर्बल अथवा स्‍वजन हो तो भी उसके प्रति उपेक्षा नहीं करनी चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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