हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवादइस समय आकाश मूर्धाभिषिक्त राजा के समान जान पड़ता है। सफेद बादल ही उसकी श्वेत पगड़ी या उज्ज्वल मुकुट हैं, हंसरूपी श्वेत चँवर के द्वारा मानो उसके लिये हवा की जाती है तथा पूर्ण चन्द्रमा ही उसका निर्मल छत्र बनकर शोभा पाता है। वर्षाकाल बीत जाने पर सारे जलाशयों के जल क्रमश: क्षीण होते जा रहे हैं, मानो हंसों ने उनकी हँसी उड़ायी हो और सारसों ने उनकी निन्दा की हो (इसी खेद से उनमें कृशता आ गयी है) समुद्रगामिनी नदियां हंसरूपी हास से सुशोभित हो अपने पति (समुद्र) के पास जा रही हैं। चक्रवाक के जोड़े उनके युगल उरोज-से जान पड़ते हैं और दोनों तट नितम्ब-मण्डल की शोभा धारण करते हैं। रात के समय (जलाशयों के) जल में अगणित कुमुद खिल उठते हैं और आकाश असंख्य तारिकाओं से चित्रित हो जाता है। वे दोनों मानो एक-दूसरे के प्रति गर्व-सा प्रकट करते हुए कहते हैं कि ‘मेरी शोभा तुम से कम नहीं है’। जिनमें मदमत्त पुरुषों की भाँति क्रौंच पक्षियों की मधुर बोली गूँज रही है, जहाँ पके हुए धान की बालें पीली साड़ी में सजी हुई सुन्दरी बालाओं की भाँति अपनी श्वेत-पीत प्रभा बिखेर रही हैं और इस प्रकार जो विवाहित स्त्री-पुरुषों के कौतुकागारों के सदृश रमणीयता धारण करते हैं, उन वनों में मन को अधिक आनन्द का अनुभव होता है। पोखरियां पोखरे, खिले हुए कमलों से सुशोभित बावड़ियां, खेतों की क्यारियां, नदियां और सरोवर- ये सब-के-सब अनुपम शोभा-सम्पति से प्रकाशित हो उठे हैं। लाल कमल, अन्यान्य श्वेत-पीत आदि कमल तथा नील उत्पल भी जलजनित शोभा के भागी हुए हैं। मोरों का मद उतर गया है। वायु मन्दगति से आगे बढ़ रही है। आकाश बादलों से शून्य हो गया है और समुद्र भरा-पूरा दिखायी देता है। वर्षा-ऋतु बीत जाने से जो यत्र-तत्र शिथिल होकर बिखरे पड़े हैं, जो नृत्य का कार्य और उत्साह समाप्त हो जाने के कारण जो त्याग दिये गये हैं, उन मोर-पंखों के कारण यह भूमि मानो बहुत-से नेत्रों वाली दिखायी देती है। जो अपने ही पंक से मलिन हो रहे हैं, जहाँ काश खिले हुए हैं और लता-बेलें फैली हुई हैं तथा जिन पर यत्र-तत्र हंसों और सारसों के बैठने के स्थान हैं, ऐसे तटों से यमुना की बड़ी शोभा हो रही है। धान की बालों के पक जाने से रमणीय दिखायी देने वाली खेतों की क्यारियों में अनाज के दाने बीनकर खाने वाले सारस आदि पक्षी तथा जलाशयों के जलों में मत्स्य आदि जलजन्तुओं का भक्षण करने वाले बक आदि पक्षी करलव कर रहे हैं। वर्षा काल में बादलों ने अपने जल से जिन्हें सींचा था, वे अनाज के कोमल पौधे बाल्या वस्था से प्रौढ़ावस्था में आकर कठोर हो गये हैं। ये चन्द्रदेव बादलरूपी वस्त्र उतारकर शरद्-ऋतु के गुणों से और भी प्रकाशित हो इस निर्मल आकाश में हर्षोल्लास के साथ निवास करते हैं। शरद्-ऋतु में गौएं पहले से ही दूना दूध देने लगी हैं। सांड़ दुगुने मतवाले हो उठे हैं। वनों की शोभा-सम्पत्ति दुगुनी बढ़ गयी है और पकी हुई खेती के कारण यह पृथ्वी अनन्त गुणों से सम्पन्न हो गयी है। बादलों के आवरण से मुक्त हुए ग्रह-नक्षत्र, कमल-मण्डित जल तथा मनुष्यों के मन प्रसाद (स्वच्छता एवं प्रसन्नता) को प्राप्त हो रहे हैं। आकाश में मेघयुक्त हुआ सूर्य शरद्-ऋतु के प्रभाव से अधिक प्रज्वलित तेज (धूप) की सृष्टि करता है तथा अपनी किरणों को और भी तीखी करके वसुधा के रस का शोषण कर रहा है। भूतल के नरेश अपने सैनिकों से उनके अस्त्रों का मार्जन करवाकर (उन्हें साथ ले) विजय की इच्छा से एक-दूसरे के राष्ट्र की ओर जा रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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