हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 127 श्लोक 125-148

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 125-148 का हिन्दी अनुवाद


ये महाभाग सप्तर्षि भृगु और बृहस्पति के पास खड़े हैं, अन्यान्य महात्मा ऋषि भी पधारे हैं, तुम लोग क्रमश: इन सबकी वन्दना करो। ये समस्‍त चक्रधारी (लोकपाल) खड़े हैं, इन सबको प्रणाम करो। सागर, सरोवर, दिशा और विदिशाएँ- ये सब मेरा प्रिय करने के लिये यहाँ पधारे हैं, तुम लोग क्रमश: इनकी वन्दना करो। वासुकि आदि महाबली नाग तथा गौएँ मेरा प्रिय करने के लिये आयी हैं, तुम लोग क्रमश: इन्हें प्रणाम करो। नक्षत्रों सहित ग्रह और तारे, यक्ष, राक्षस और किन्नर- ये सभी मेरा प्रिय करने के लिये यहाँ आये हैं, तुम लोग क्रमश: इनकी वन्दना करो। भगवान वासुदेव का यह वचन सुनकर वे समस्त यादवकुमार क्रमश: सभी देवताओं और महात्माओं को प्रणाम करके खड़े हो गये। समस्त देवताओं को वहाँ उपस्थित देख पुरवासियों को बड़ा विस्मय हुआ। वे पूजा की सामग्री लेकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ आये। उस समय उनके मुख से निम्नांकित बातें निकल रही थीं- ‘अहो! भगवान वासुदेव का आश्रय लेने से हमें महान आश्‍चर्य की वस्तु देखने को मिल रही है।'

तदनन्तर समस्त देवताओं की पूजा करते हुए पुरवासी वहाँ सब और चन्दन के चूर्ण और सुगन्धित पुष्प बिखेरने लगे। उन्होंने खील चढ़ाये, बारम्बार प्रणाम किये, धूप-दीप आदि निवेदन किये, भाँति-भाँति के वाद्यों की ध्वनि की और अहिंसा आदि यमों का पालन किया, इस प्रकार समस्त द्वारकावासियों ने देवताओं की पूजा की। इसके बाद देवराज इन्द्र ने राजा उग्रसेन, भगवान वासुदेव, यदुनन्दन साम्ब, सात्यकि, उल्मुक, महाबली विपृथु, महाभाग अक्रूर तथा निशठ इन सबको हृदय से लगाकर मस्तक सूँघा, फिर उन महाभाग इन्द्र ने सारी यदुमण्डली के समक्ष अपनी (इन्द्र की) स्तुति करते हुए केशिहनता भगवान श्रीकृष्ण को उत्तर देते हुए उनके विषय में वहाँ इस प्रकार उत्कृष्ट बात कही- ये श्रीकृष्ण समस्त सात्वतवंशी यादवों में सर्वश्रेष्ठ सात्वत हैं। इन्होंने रणभूमि में अपने यश और पुरुषार्थ के द्वारा यदुनन्दन अनिरुद्ध को बन्धन मुक्त कराकर महादेव जी तथा महामना कार्तिकेय के देखते-देखते संग्राम में बाणासुर को परास्त करके पुन: द्वारका में पदार्पण किया है। सहस्र भुजाओं से युक्त बाणासुर के लिये इन्होंने दो ही परम उत्तम भुजाएँ शेष छोड़ दीं और उसे द्विबाहु के पद पर प्रतिष्ठित करके ये श्रीहरि अपनी पुरी में पधारे हैं। जिसके लिये मनुष्यों में महात्मा श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था, वह कार्य भी अब पूरा हो गया, इन्होंने हम देवताओं के सारे शोक नष्ट कर दिये। यादवों! अब मधुर मधुपान करते और निरन्तर मनोवांच्छित विषयों का ही सुख भोगते हुए तुम लोगों का समय बड़ी प्रसन्नता के साथ बीतेगा।

सब देवता इन महात्मा श्रीकृष्ण की भुजाओं का आश्रय लेने से सर्वथा शोकहीन हो गये। अब हम सभी सुखपूर्वक स्वर्गलोक में रमण करेंगे। इस प्रकार दानव विनाशक भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करके सम्पूर्ण देवताओं से घिरे हुए महाभाग इन्द्र ने उनसे जाने के लिये आज्ञा माँगी, तत्पश्चात विश्ववन्दित श्रीकृष्ण को पुन: हृदय से लगाकर इन्द्र देवताओं और मरुदगणों के साथ स्वर्गलोक को चले गये। महात्मा ऋषि भी विजयसूचक आशीर्वादों से महाबली श्रीकृष्ण का अभिनन्दन करके जैसे आये थे, वैसे फिर चले गये। इसी तरह यक्ष, राक्षस और किन्नर भी अपने-अपने स्थानों को लौट गये। देवराज इन्द्र के स्वर्गलोक को चले जाने पर महाबली, महाभाग, पद्मनाभ श्रीकृष्ण ने समस्त यादवों का कुशल-मंगल पूछा। तदनन्तर सहस्रों पुरवासी किलकारियाँ भरते और आश्चर्य प्रकट करते हुए श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र की चन्द्रिका का दर्शन करने के लिये आने-जाने लगे। निष्पाप श्रीकृष्ण उनकी उस प्रेमभक्ति से सदा प्रसन्न रहते थे। द्वारका में आकर उत्तम लक्ष्मी से संयुक्त हुए भगवान श्रीकृष्ण नाना प्रकार के सम्पूर्ण मनोवांछित वस्तुओं का सदुपयोग करते हुए यादवों के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में श्रीकृष्ण का द्वारका में पुनरागमन विषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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