हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 11 श्लोक 35-53

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 35-53 का हिन्दी अनुवाद

सुन्दर लाल कमल उनके लाल-लाल ओष्ठों की झांकी कराते थे। जल का नीचे की ओर जाता हुआ प्रवाह ही उनकी झुकी हुई भौहें थीं। नील कमल ही उनके नेत्र थे। जल का कुण्‍ड ही उनका विस्‍तृत ललाट-प्रान्‍त था तथा सेवा ही उनके सुन्‍दर केश थे उनकी कान्ति बड़ी ही कमनीय थी। चकवा-चकई के जोड़े उनके मानों युगल उरोज थे। उनका विस्‍तृत मुख दोनों तटों पर फैला हुआ था। लम्बे स्त्रोत ही उनकी विशाल भुजाओं के समान थे। दोनों तटों की पूर्णता ही उनके विस्‍तृत कान थे। वे कारण्‍डवों के कुण्‍डल पहिने हुए थीं। उनके नील कमलरूपी लोचन अनुपम शोभा से सम्‍पन्न थे। तट पर उत्‍पन्‍न हुए वृक्ष आदि ही उनके आभरण थे। मछलियों की पंक्ति उनकी उज्ज्‍वल मेखला (करधनी) सी प्रतीत होती थी। उनके जल का फैला हुआ पाट ही पाटम्‍बर का काम देता था। सारसों की मीठी बोली ही उनके नूपुरों की मधुर ध्‍वनि थी। वे काशपुष्‍प, हंस एवं सुवर्ण के समान सुन्‍दर स्‍वच्‍छ जलमय वस्‍त्र धारण करती थीं। भयंकर नाके उनके अंगों में लगे हुए चन्‍दन-से प्रतीत होते थे। वे कच्‍छपरूपी लक्षणों (हाथ-पैरों की रेखाओं) से विभूषित थीं।

पशुओं के पानी पीने के घाट पर आये हुए श्वापद (हिंसक जन्‍तु) उनके शीशफूल थे। मनुष्‍य आदि प्राणी उनके पयोधर (जलपूर्ण स्‍तन) का पान करते थे। यमुना के जल को हिंसक जन्‍तुओं ने पीकर जूठा कर दिया था और उनके दोनों तट विभिन्‍न आश्रमों से भरे हुए थे। ऐसी समुद्र की पटरानी यमुना की शोभा निहारते और बढ़ाते हुए श्रीकृष्‍ण अपनी मनोहर गति से वहाँ चारों ओर विचर रहे थे। नदियों में श्रेष्ठ यमुना के तट पर विचरते हुए श्रीकृष्‍ण ने एक उत्तम ह्नद (जलकुण्‍ड) देखा, जो बहुत बड़ा था। उसका विस्‍तार एक योजन का था। देवताओं के लिये भी उसे पार करना कठिन था। वह बहुत ही गहरा, क्षोभ रहित जल से परिपूर्ण तथा प्रशान्‍त समुद्र के समान हलचल से शून्‍य था। जल में पैदा होने वाले मगर आदि हिंसक जन्‍तुओं ने भी उस ह्नद को त्‍याग दिया था। जलचर पक्षियों से भी वह सूना ही था तथा मेघों से आच्‍छादित हुए आकाश की भाँति वह अगाध जल से पूर्ण दिखायी देता था। उसके तटों पर बड़े-बड़े बिल थे, जिनमें सर्प रहते थे उनके कारण उस कुण्‍ड तक पहुँचना बहुत ही कष्‍टदायक था। सर्पों की विषरूपी अरणि से उत्‍पन्‍न हुई आग के धूम से वह सारा कुण्‍ड व्‍याप्‍त रहता था। वह पशुओं के उपभोग में आने के योग्‍य नहीं रह गया था। जलार्थी प्राणियों के लिये उसका जल अपेय हो गया था। तीनों समय स्‍नान की इच्‍छा रखने वाले देवताओं ने भी उसे त्‍याग दिया था। वह ह्नद उनके उपभोग में भी नहीं आता था।

उस कुण्‍ड के ऊपर-ऊपर आकाशचारी पक्षियों के लिये आकाश मार्ग से भी जाना असम्‍भव था। उसके जल में तिनके भी पड़ जाय तो वह कुण्‍ड अपनी विषाग्नि के तेज से प्रज्‍वलित हो उठता था। उसके चारों ओर एक-एक योजन से अधिक भूभाग ऐसा था, जिस पर चलना देवताओं के लिये भी बहुत कठिन था। वहाँ फैली हुई भयानक विषाग्नि से जो लपट उठती थी, उसने आस-पास के वृक्षों को भी जलाकर भस्‍म कर दिया था। व्रज के उत्तर भाग में केवल एक कोस की भूमि ऐसी रह गयी थी, जो उसकी विषाग्नि के प्रभाव से बची रहने के कारण रोग-शोक से रहित थी। उस विशाल एवं अगाध कुण्‍ड को, जो अपने तेज से दीप्तिमान था, देखकर श्रीकृष्‍ण ने मन-ही-मन सोचा किस महान प्राणी का यह कुण्‍ड है। इस ह्नद में काली अंजनराशि के समान काला तथा अत्‍यन्‍त दारुण वह साक्षात नागराज कालिय निवास करता है, जो पूर्वकाल में मेरी जानकारी में ही सर्पभोजी पक्षिराज गरुड़ के भय से समुद्र का निवास छोड़कर यहाँ आ गया था। उसी ने इस सारी समुद्रगामिनी यमुना को विष से दूषित किया है। उस नागराज के भय से ही कोई प्राणी इस देश का सेवन नहीं करता। इसीलिये बड़ी-बड़ी घासों से भरा यह वन भयानक हो गया है। वरोह और वृक्षों सहित यह घोर वन नाना प्रकार की लताओं तथा पादपों से परिपूर्ण है तथा सर्पराज कालिय के विश्वासी मन्‍त्री इस भूभाग की रक्षा करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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