हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 113 श्लोक 20-32

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रयोदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद

सात द्वीपों, सातों समुद्रों तथा प्रत्येक द्वीप के सात-सात कुल पर्वतों को लाँघकर लोकालोक पर्वत को भी पार करके वह रथ बड़े भारी अन्धकार में प्रविष्ट हुआ। तब घोडे़ कभी-कभी बड़े कष्ट से रथ खींचते थे। नरेश्वर! वह अन्धकार कीचड़ के रूप में उपलब्ध हुआ, जो स्पर्श करने से ज्ञात होता था। तत्पश्चात वह अन्धकार पर्वत के रूप में प्राप्त हुआ। महाराज! उसके पास पहुँचकर रथ के घोडे़ निश्चेष्ट होकर खडे़ हो गये। तब गोविन्द ने अपने चक्र से उस अन्धकार को विदीर्ण करके आकाश दिखाया, जो रथ के लिये उत्तम मार्ग था। उस अन्धकार से निकलकर आकाश दर्शन करने पर मुझे यह ज्ञान हुआ कि अब मैं जी जाऊँगा, फिर तो मेरा सारा भय दूर हो गया। इसके बाद मैंने आकाश में एक प्रज्वलित तेज का दर्शन किया, जो पुरुष के आकार में स्थित था। वह सम्पूर्ण लोकों में व्याप्त जान पड़ता था। उस समय भगवान हृषीकेश उस प्रज्वलित तेज की राशि में समा गये, किंतु मैं और वह श्रेष्ठ ब्राह्मण रथ पर ही बैठे रहे।

फिर दो ही घड़ी में भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण के चारों बालकों को साथ में लेकर वहाँ से निकले। तीन तो वे बालक थे, जिनका पहले अपहरण हुआ था और चौथा वह नवजात बालक था। भगवान जनार्दन ने सब पुत्र ब्राह्मण को दे दिये। प्रभो! वहाँ अपने पुत्रों को पुन: देखकर ब्राह्मण को बड़ा हर्ष हुआ। मुझे भी बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं तो उस समय आश्चर्य चकित हो गया था। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर हम सब लोग और वे ब्राह्मण-बालक पुन: जैसे गये थे, वैसे ही लौट आये। नृपश्रेष्ठ! अभी दोपहरी भी नहीं हुई थी। तभी हम लोग एक क्षण में द्वारका आ पहुँचे। मैं तो बारम्बार विस्मित हो रहा था। इसके बाद महायशस्वी श्रीकृष्ण ने पुत्रों सहित ब्राह्मण को भोजन कराकर उसके लिये धन की वर्षा करके उसे तत्काल घर भेज दिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में वासुदेव माहात्म्य के प्रसंग में ब्राह्मणपुत्रों का आनयन विषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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