हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 110 श्लोक 62-79

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 62-79 का हिन्दी अनुवाद

मैं दूसरे किसी भूत को ऐसा नहीं देखता, जो आपके समान हो। आप ही सम्पूर्ण चराचर जगत आप से ही उत्पन्न हुआ है। सर्वदेवेश्वर! संसार में भूत और इन्द्रियमय जो देवता, दानव और मनुष्य आदि प्राणी देखे जाते हैं, वे सब आप से ही उत्पन्न होते हैं, इस सम्पूर्ण जगत को देखकर यही निश्चय होता है। इसलिये आप अवश्य ही देवताओं के सनातन देवाधिदेव हैं, क्योंकि आप ही उनके स्रष्टा हैं और आप ही समस्त लोकों के आदिकरण हैं। तब लोक पितामह भगवान ब्रह्मा ने मुझसे कहा- नारद! धन्य और आश्चर्य के विवेचन से सम्बन्ध रखने वाले वचनों द्वारा मेरे विषय में क्या कहते हो? नारद! सबसे महान् आश्चर्य तो वेद हैं, वे ही धन्य भी हैं, क्योंकि वे तत्त्वार्थदर्शी वेद सम्पूर्ण लोकों को धारण करते हैं। विप्रवर! ऋक्, साम और यजुर्वेद का जो सत्य है तथा अर्थववेद में जो सत्य माना गया है, उसी को स्वरूप समझो। वेदों ने मुझे धारण कर रखा है और मैंने वेदों को। तब स्वयम्भू ब्रह्माजी के कहे हुए उनके स्वरूप के अनुरूप वचन से प्रेरित हो मैंने लक्षण विस्तार के अनुसार वेदों के उपस्थान का विचार किया। स्वयम्भू ब्रह्माजी के वचन से मैंने मन्त्र और व्याख्या से युक्‍त पूर्वोक्त चारों देवों की सेवा में उपस्थित हो उनसे कहा- आप लोग धन्य हैं, पवित्र हैं और सदा आश्चर्य से विभूषित रहते हैं।

ब्राह्मणों के आधार भी आप ही हैं, ऐसा प्रजापति का कथन हैं। आप लोगों के विषय में स्वयम्भू ब्रह्माजी का भी यही निर्णय है कि आप लोग सबसे श्रेष्ठ हैं। श्रुति अथवा तपस्या के द्वारा भी आप लोगों से बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। तब चारों वेदों ने मेरे सब ओर खड़े होकर इस प्रकार उत्तर दिया- नारद! परमात्मा के उद्देश्य से किये जाने वाले यज्ञ ही आश्चर्य और धन्य हैं। नारद! परमात्मा ने यज्ञ के लिये ही हमें प्रकट किया हैं, अत: यज्ञ ही हमसे उत्कृष्ट है। हम अपने वश में नहीं हैं, स्वयम्‍भू ब्रह्मा से उत्कृष्ट वे हैं और वेदों से उत्कृष्ट यज्ञ हैं। तब मैंने वेदों की वाणी से पुरस्कृत हुए यज्ञों से कहा- यज्ञों! तुम लोगों में सबसे उत्कृष्ट तेज दिखायी देता है। ब्रह्माजी ने जो बात कही है और वेदों ने जिस प्रकार प्रतिपादन किया है, उसके अनुसार इस जगत में आप लोगों के सिवा दूसरी कोई आश्चर्य की वस्तु नहीं ज्ञात होती है। आप लोग धन्य हैं, जो द्विजातियों के वंशज हैं। आप लोगों से तर्पित होने पर त्रिविध अग्नियों को तृप्ति प्राप्त होती है। यज्ञों में ही सब देवता अपने भागों से ओर महर्षिगण मन्त्रों से तृप्त होते हैं। मेरे ऐसा कहने के वाद यूपरूपी ध्वज से सुशोभित समस्त अग्रिष्टोम आदि यज्ञ खड़े होकर मुझ से बोले- मुने! यह आश्चर्य अथवा धन्य शब्द हम लोगों के लिये उपयुक्त नहीं है। भगवान विष्णु ही परम आश्चर्य रूप हैं, क्योंकि वे ही हमारी परमगति हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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