हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 110 श्लोक 23-41

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद

उनके ऐसा करने पर भगवान श्रीकृष्ण मुसकराकर नारद मुनि से बोले- 'मैं दक्षिणाओं के साथ आश्चर्य एवं धन्‍य हूँ।' भगवान के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ नारद उन राजाओं के बीच में इस प्रकार बोले- 'श्रीकृष्ण! मुझे अपनी बात का पूरा उत्तर मिल गया, अब मैं जैसे आया था वैसे ही लौट जाऊंगा।' उन्‍हें जाते देख उन नारद जी के कहे हुए गूढ़ मन्‍त्ररूपी वाक्‍य का तात्‍पर्य न जानने वाले भूपालों ने भगवान से कहा- 'माधव! नारद जी ने आपके विषय में आश्चर्य और धन्य कहा है और आपने 'दक्षिणाओं के साथ’ ऐसा कहकर नारद जी को उनकी बात का उत्तर दे दिया है, यह सब हो जाने पर भी हम यही नहीं समझ सके कि यह क्या है? इस दिव्य एवं महान मन्त्रपद का तात्पर्य क्या है? श्रीकृष्ण! यदि यह सुनाने योग्‍य है हो तो हम लोग यथार्थ रूप से इसका रहस्य सुनना चाहते हैं।' तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन समस्त भूपाल शिरोमणियों से कहा- 'राजाओं! यदि तुम्हें इसका तात्पर्य सुनना है तो ये विप्रवर नारद जी ही आपके समक्ष पूर्वोक्त वचनों की व्याख्या करेंगे।' ऐसा कहकर वे नारद जी से बोले- 'नारद जी! आपने जो बात कही और मैंने जो उसका उत्तर दिया, उसका यथार्थ रहस्य ये राजा लोग सुनना चाहते हैं, अत: आप इन्हें बताइये।' तब वे सुन्दर सुवर्णमय पीठ पर जमकर बैठ गये। वे सुन्दर अलंकारों से अलंकृत भी थे, उन्होंने उन वन्दनीय प्रभु प्रभाव का वर्णन इस प्रकार आरम्भ किया।

नारद जी बाले- 'नृपवरों! आप लोग जितनी संख्या में यहाँ पधारें हैं, वे सुनें, मैं इन परम महान श्रीकृष्ण की महिमा के पार कैसे पहुँचा, यह बता रहा हूँ। किसी समय मैं गंगा जी के तट पर तीनों समय स्‍नान करने वाले अतिथि के रूप में अकेला ही विचरता था। एक दिन जब रात बीत चुकी थी और सूर्यदेव दिखायी देने लगे थे, मैंने एक कछुआ देखा, जो पर्वत के शिखर के समान प्रतीत होता था। उसका शरीर दो कपालों के संयोग से बना था। उसका मण्डलाकार विस्तार एक कोस का था, लम्बाई इससे दूनी थी। उसके चार पैर थे। वह नानी से भीगा और कीचड़ में सना हुआ था। उसकी आकृति मेरी वीणा के समान थी। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो हाथी के चमड़े का ढेर लगा हो। मैंने उस जलचर जन्तु को हाथ से छूकर उससे कहा- कूर्म! तुम्हार शरीर आश्चर्यजनक है। मेरे मत में तुम धन्य हो। क्योंकि तुम दो अभेद्य कपालों से आवृत रहकर दूसरे किसी की परवाह न रखते हुए पानी में नि:शंक विचरते हो। तब उस जलचर कछुए ने स्वयं ही मनुष्य की-सी बोली में मुझ से कहा- मुने! मुझमें क्या आश्चर्य है? प्रभो! मैं कैसे धन्य हूँ।

ब्रह्मन! धन्य तो ये गंगा नदी हैं। इनसे बढ़कर आश्‍चर्य की वस्तु और क्या है? जिनके भीतर मुझ-जैसे हजारों जलजन्तु विचरते है। तब मैं कौतूहलवश गंगा नदी के निकट गया और बोला- सरिताओं में श्रेष्ठ गंगे! तुम धन्य हो और सदा आश्चर्य से विभूषित रहती हो, क्योंकि ऐसे-ऐसे विशालकाय हिंसक जन्तु तुम्हारी शोभा बढ़ाते हैं, तुम अनेकानेक कुण्डों से युक्त हो और कितने ही तापसों के आश्रमों की रक्षा करती हुई समुद्र तक जाती हो। मेरे इस तरह कहने पर गंगा जी अपने दिव्य रूप से प्रकट होकर मुझ देव गन्धर्व जातीय तथा इन्द्र के प्रिय मित्र नारद नामक ब्राह्मण से यों बोलीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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