हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 105 श्लोक 43-63

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पन्‍चांधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद

उन बाणों को अपने पास आने से पहले ही प्रद्युम्न ने तीखे सायकों से काट डाला। तत्पश्चात एक अर्धचन्द्राकार बाण लेकर समस्त राजाओं उनके सैनिकों के देखते-देखते दुर्धर के सारथि को मार डाला। फिर उत्तम गाँठ वाले, कंकपत्रयुक्त चार तीखे नाराचों द्वारा दुर्धर के रथ सम्बंधी चार घोड़ों को काल के गाल में भेज दिया। इसके बाद एक बाण से रथ को जोड़ने वाली रस्सी, छत्र और ध्वज तथा एक बाण से बन्धर के टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। फिर साठ बाणों से प्रद्युम्‍न ने रथ के जुएं, धुरे और पहियों को भी काट डाला। तदनन्तर प्रद्युम्‍न ने कंकपक्षी के पर लगे हुए और अत्यन्त तेज किये हुए एक बाण को लेकर दूसरे के आश्रय पर जीने वाले दुर्धर के हृदय पर छोड़ा। तब वह दुर्धर निष्प्राण हो शोभा और सत्त्व से रहित हो गया। उसकी कान्ति फीकी पड़ गयी। वह रथ की बैठक में से नीचे गिर पड़ा। उस समय वह, जिसका पुण्य क्षीण हो गया हो ऐसे ग्रह के समान दीखने लगा। दुर्धर शूर दानव था, उसके मारे जाने पर दानवेश्वर केतुमाली भी कृष्णकुमार प्रद्युम्‍न पर बाणों के समूहों को छोड़ता हुआ चढ़ आया। तदनन्तर क्रोध में भरा हुआ केतुमाली भ्रुकुटी चढ़ाकर मुख को भीषण बना प्रद्युम्‍न पर सहसा दौड़ पड़ा और उनसे कहने लगा 'खड़ा रह! खड़ा रह!!' यह सुनकर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्‍न को बड़ा क्रोध हुआ, उन्होंने बाणों की वर्षा करके केतुमाली को ढक दिया, ठीक उसी तरह जैसे वर्षा-ऋतु में बादल जल की धाराओं से पर्वत को आच्छादित कर देता है। धनुर्धर प्रद्युम्‍न के द्वारा घायल हुए दानवमन्त्री केतुमाली ने प्रद्युम्‍न का वध करने की इच्छा से चक्र लेकर उनके ऊपर चलाया।

श्रीकृष्ण के चक्र के समान तेजस्वी उस सहस्रार चक्र को पास आया देख प्रद्युम्‍न ने सहसा उछलकर उसे पकड़ लिया और सबके देखते-देखते उस समय उसी चक्र से केतुमाली का सिर काट लिया। रुक्मिणीकुमार का वह महान कर्म देखकर समस्‍त देवताओं सहित देवराज इन्‍द्र को बड़ा विस्‍मय हुआ। उस समय गन्‍धर्वों और अप्‍सराओं ने उनके ऊपर फूलों की वर्षा की। केतुमाली को मारा गया देख शत्रुहन्‍ता और प्रमर्दन विशाल सैन्‍य समूह के साथ प्रद्युम्‍न पर टूट पड़े। वे गदा, मूसल, चक्र, प्रास, तोमर, सायक, भिन्दिपाल, कुठार और चमकीले कूटमुद्गरों को एक साथ ही श्रीकृष्‍ण कुमार के वध के लिये उनके ऊपर फेंकने लगे। वीर प्रद्युम्‍न ने भी अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए शस्‍त्र समूहों द्वारा शत्रुओं के अस्‍त्र-जाल के बारम्‍बार बहुतेरे टुकड़े कर डाले। उन्‍होंने कुपित होकर सहस्रों हाथियों और हाथी सवारों को मार डाला। सारथियों सहित रथों और घोड़ों को भी रौंदकर मिट्टी में मिला दिया। उन सबको धराशायी करते हुए प्रद्युम्न ने अपने बाण समूहों द्वारा समस्‍त सैनिको को बींध डाला। कोई भी ऐसा नहीं दिखायी देता था, जो उनके बाणों से विद्ध न हुआ हो। इस प्रकार मकरध्‍वज शत्रु की सारी सेनाओं को मथ डाला और एक भयानक नदी बहा दी, जो रक्‍तमय जल की तरंगों से सुशोभित होती थी। मोतियों के हार उसमें उठती हुई बहुसंख्‍यक लहरों के समान प्रतीत होते थे। वसा और मेदे कीचके समान जान पड़ते थे। छत्र द्वीप और बाण आवर्त (भँवर) के समान थे। हाथीरूपी ग्राहों से युक्‍त होने के कारण वह बड़ी भयंकर जान पड़ती थी। खड्गरूपी नाकें उसके आभूषण थे। वह केशरूपी सेवार से ढकी हुई थी, कटिसूत्र कमलनाल के समान प्रतीत होते थे, हिलते हुए चँवर हंसों के पंख संचालन की भाँति प्रती‍त होते थे, मानो उनके द्वारा उस नदी को हवा की जा रही थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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