एकोनाशीतितम (79) अध्याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: भाग-3 का हिन्दी अनुवाद
नगरनिवासी मनुष्य बोले- अहो! यात्रा करते समय जिनके पीछे विशाल चतुरंगिणी सेना चलती थी, आज वे ही राजा युधिष्ठिर इस प्रकार जा रहे हैं और उनके पीछे द्रौपदी के साथ केवल चार भाई पाण्डव तथा पुरोहित चल रहे हैं। जिसे आज से पहले आकाशचारी प्राणी तक नहीं देख पाते थे, उसी द्रुपदकुमारी कृष्णों को अब सड़क पर चलने वाले साधारण लोग भी देख रहे हैं। सुकुमारी द्रौपदी के अंगों में दिव्य अंगराग शोभा पाता था। वह लाल चन्दन का सेवन करती थी, परंतु अब वन में सर्दी, गर्मी और वर्षा लगने से उसकी अंग कान्ति शीघ्र ही फीकी पड़ जाएगी। निश्चय ही आज कुन्ती देवी बड़े भारी धैर्य का आश्रय लेकर अपने पुत्रों और पुत्रवधू से वार्तालाप करती हैं; अन्यथा इस दशा में वे इनकी ओर देख भी नहीं सकतीं। गुणहीन पुत्र का भी दु:ख माता से कैसे देखा जायेगा; फिर जिस पुत्र के सदाचार मात्र से यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उस पर कोई दु:ख आये, तो उसकी माता वह कैसे देख सकती है? पुरुष रत्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को कोमलता, दया, धैर्य, शील, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह- ये छ: सद्गुण सुशोभित करते हैं। उनकी हानि से आज सारी प्रजा को बड़ी पीड़ा हो रही है। जैसे गर्मी में जलाशय का पानी घट जाने से जलचर जीव-जन्तु व्यथित हो उठते हैं एवं जड़ कट जाने से फल और फूलों से युक्त वृक्ष सूखने लगता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् के पालक महाराज युधिष्ठिर की पीड़ा से सारा संसार पीड़ित हो गया है। महातेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर मनुष्यों के मूल हैं। जगत् के दूसरे लोग उन्हीं की शाखा, पत्र, पुण्य और फल हैं। आज इस अपने पुत्रों और भाई-बन्धुओं को साथ लेकर चारों भाई पाण्डवों की भाँति शीघ्र उसी मार्ग से उनके पीछे-पीछे चलें, जिससे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर जा रहे हैं। आज हम अपने श्वेत, बाग-बगीचे और घर-द्वार छोड़कर परम धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के साथ चल दें और उन्हीं के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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