महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-2

एकोनाशीतितम (79) अध्‍याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार सम्‍पत्ति से वचिंत होकर तुम वन के दुर्गम स्‍थानों में कैसे रह सकोगे? वीर्य, धैर्य, बल, उत्‍साह और तेज से परिपुष्‍ट होते हुए भी तुम दुर्बल हो। यदि मैं यह जानती कि नगर में आने पर तुम्‍हें निश्‍चय ही वनवास का कष्‍ट भोगना पड़ेगा तो महाराज पाण्डु के पर लोकवासी हो जाने पर शतश्रृंगपुर से हस्तिनापुर नहीं आती। मैं तो तुम्‍हारे तपस्‍वी एवं मेघावी पिता को ही धन्‍य मानती हूँ, जिन्‍होंने पुत्रों के दु:ख से दुखी होने का अवसर न पाकर स्‍वर्गलोक की अभिलाषा को ही प्रिय समझा। इसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्‍पन्‍न एवं परमगति को प्राप्‍त हुई कल्‍याणमयी धर्मज्ञा माद्री को भी सर्वथा धन्‍य मानती हूँ। जिसने अपने अनुराग, उत्तम बुद्धि और सद्व्‍यवहार द्वारा मुझे भुलाकर जीवित रहने के लिये विवश कर दिया। मुझको और जीवन के प्रति मेरी इस आसक्ति को धिक्‍कार है! जिसके कारण मुझे यह महान् क्‍लेश भोगना पड़ता है। पुत्रों! तुम सदाचारी और मेरे प्राणों से भी अधिक प्‍यारे हो। मैंने बड़े कष्ट से तुम्‍हें पाया है; अत: तुम्‍हें छोड़कर अलग नहीं रहूँगी। मैं भी तुम्‍हारे साथ वन में चलूँगी।

हाय कृष्‍णे! तुम क्‍यों मुझे छोड़े जाती हो? यह प्राण धारण रूपीधर्म अनित्‍य है, एक-न-एक दिन इसका अन्‍त होना निश्चित है, फिर भी विधाता ने जाने क्‍यों प्रमादवश मेरे जीवन का भी शीघ्र ही अन्‍त नहीं नियत कर दिया। तभी तो आयु मुझे छोड़ नहीं रही है। हा! द्वारकावासी श्रीकृष्‍ण! तुम कहाँ हो! बलराम जी के छोटे भैया! मुझको तथा इन नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों की इस दु:ख से क्‍यों नहीं बचाते? 'प्रभो! तुम आदि-अन्‍त से रहित हो, जो मनुष्‍य तुम्‍हारा निरन्‍तर स्मरण करते हैं, उन्‍हें तुम अवश्‍य संकट से बचाते हो।' तुम्‍हारी यह विरद व्‍यर्थ कैसे हो रही है? ये मेरे पुत्र उत्तम धर्म, महात्‍मा पुरुषों के शील-स्‍वभाव, यश और पराक्रम का अनुसरण करने वाले हैं, अत: कष्‍ट भोगने के योग्‍य नहीं है; भगवन्! इन पर तो दया करो।

नीति के अर्थ को जानने वाले परम विद्वान् भीष्‍म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के, जो इस कुल के रक्षक हैं रहते हुए यह विपत्त्‍िा हम पर क्‍यों आयी? हा महाराज पाण्‍डु! कहाँ हो? आज तुम्‍हारे श्रेष्ठ पुत्रों को शत्रुओं ने जूए में जीतकर वनवास दे दिया है, तुम क्‍यों इनकी दुरवस्था की उपेक्षा कर रहे हो? माद्रीनन्‍दन सहदेव! तुम मुझे अपने शरीर से भी अधिक प्रिय हो। बेटा! लौट आओ। कुपुत्र की भाँति मेरा त्‍याग न करो। तुम्‍हारे ये भाई यदि सत्‍य-धर्म के पालन का आग्रह रख-कर वन में जा रहे हैं तो जायँ; तुम यहीं रहकर मेरी रक्षा-जनित धर्म का लाभ लो।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- इस प्रकार विलाप करती हुई माता कुन्‍ती को अभिवादन एवं प्रणाम करके पाण्‍डव लोग दुखी हो वन को चले गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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