अष्टषष्टितम (68) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 47-66 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन ने कहा- देश-देशान्तर के निवासी क्षत्रियो! आप लोग मेरी इस बात पर ध्यान दें। ऐसी बात आज से पहले न तो किसी ने कही होगी और न दूसरा कोई कहेगा ही। भूमिपालो! यह खोटी बुद्धि वाला दु:शासन भरतवंश के लिये कलंक है। मैं युद्ध में बलपूर्वक इस पापी की छाती फाड़कर इसका रक्त पीऊँगा। यदि न पीऊँ अर्थात्- अपनी कही हुई उस बात को पूरा न करूँ, तो मुझे अपने पूर्वज बाप-दादों की श्रेष्ठ गति न मिले। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीमसेन की यह रोंगटे खडे़ कर देने वाली भयंकर बात सुनकर वहाँ बैठे हुए राजाओं ने धृतराष्ट्रपुत्र दु:शासन की निन्दा करते हुए भीमसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जब सभा में वस्त्रों का ढेर लग गया, तब दु:शासन थककर लज्जित हो चुपचाप बैठ गया। उस समय कुन्तीपुत्रों की ओर देखकर सभा में उपस्थित नरेशों की ओर से दु:शासन पर रोमांचकारी शब्दों में धिक्कार की बौछार होने लगी। कौरव द्रौपदी के पूवोक्त प्रश्न पर स्पष्ट विवेचन नहीं कर रहे थे, अत: वहाँ बैठे हुए लोग राजा धृतराष्ट्र की निन्दा करते हुए उन्हें कोसने लगे। तब सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता विदुर जी ने अपनी दोनों भुजाए उपर उठाकर सभासदों को चुप कराया और इस प्रकार कहा। विदुर जी बोले- इस सभा में पधारे हुए भूपालगण! द्रुपदीकुमारी कृष्णा यहाँ अपना प्रश्न उपस्थित करके इस तरह अनाथ की भाँति रो रही है; परंतु आप लोग उसका विवेचन नहीं करते, अत: यहाँ धर्म की हानि हो रही है। संकट में पड़ा हुआ मनुष्य अग्नि की भाँति चिन्ता से प्रज्वलित हुआ सभा की शरण लेता है, उस समय सभासदगण धर्म और सत्य का आश्रय लेकर अपने वचनों द्वारा उसे शान्त करते हैं। अत: श्रेष्ठ मनुष्य को उचित है कि वह धर्मानुकूल प्रश्न को सच्चाई के साथ उपस्थित करे और सभासदों को चाहिये कि वे काम-क्रोध के वेग से ऊपर उठकर उस प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन करें। राजाओ! विकर्ण ने अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया है, अब आप लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उस प्रश्न का निर्णय करें। जो धर्मज्ञ पुरुष सभा में जाकर वहाँ उपस्थित हुए प्रश्न का उत्तर नहीं देता, वह झूठ बोलने के आधे फल का भागी होता है। इसी प्रकार जो धर्मज्ञ मानव सभा में जाकर किसी प्रश्न पर झूठा निर्णय देता है, वह निश्चय ही असत्य भाषण का पूरा फल (दण्ड) पाता है। इस विषय में विज्ञपुरुष प्रह्लाद और अंगिराकुमार मुनि सुधन्वा के संवाद् रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। दैत्यराज प्रह्लाद के एक पुत्र था विरोचन। उसका केशिनी नामवाली एक कन्या की प्राप्ति के लिये अंगिरा के पुत्र सुधन्वा के साथ विवाद हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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