महाभारत सभा पर्व अध्याय 68 श्लोक 32-46

अष्टषष्टितम (68) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

Prev.png

महाभारत: सभा पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद


भरतश्रेष्‍ठ! द्रौपदी भी तो सर्वस्‍व के भीतर ही है। इस प्रकार जब कृष्‍णा को धर्मपूर्वक जीत लिया गया है, तब तुम उस नहीं जीती हुई क्‍यों समझते हो? युधिष्ठिर ने अपनी वाणी द्वारा कहकर द्रौपदी को दाँव पर रखा और शेष पाण्‍डवों ने मौन रहकर उसका अनुमोदन किया। फिर किस कारण से तुम उसे नहीं जीती हुई मानते हो? अथवा यदि तुम्‍हारी यह राय हो कि एकवस्‍त्रा द्रौपदी को इस सभा में अधर्मपूर्वक लाया गया है, तो इसके उत्तर में भी मेरी उत्तम बात सुनो। कुरुनन्‍दन! देवताओं ने स्‍त्री के लिये एक ही पति का विधान किया है; परंतु यह द्रौपदी अनेक पतियों के अधीन है, अत: निश्‍चय ही वेश्‍या है। इसका सभा में लाया जाना कोई अनोखी बात नहीं हैं। यह एकवस्‍त्रा अथवा नंगी हो तो भी यहाँ लायी जा सकती है, यह मेरा स्‍पष्ट मत है। इन पाण्‍डवों के पास जो कुछ धन है, जो यह द्रौपदी है तथा जो ये पाण्‍डव हैं, इन सबको सुबलपुत्र शकुनि ने यहाँ जूए के धन के रूप में धर्मपूर्वक जीता है। दु:शासन! यह विकर्ण अत्‍यन्‍त मूढ़ है, तथापि विद्वानों की–सी बातें बनाता है। तुम पाण्‍डवों के और द्रौपदी के भी वस्‍त्र उतार लो।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कर्ण की बात सुनकर समस्‍त पाण्‍डव अपने-अपने उत्तरीय वस्‍त्र उतारकर सभा में बैठ गये। राजन्! तब दु:शासन ने उस भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र बलपूर्वक पकड़कर खींचना प्रारम्‍भ किया। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब वस्‍त्र खींचा जाने लगा, तब द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्‍ण का स्‍मरण किया। द्रौपदी ने मन-ही-मन कहा- मैंने पूर्वकाल में महात्‍मा वसिष्ठ जी की बतायी हुई इस बात को अच्‍छी तरह समझा है कि भारी विपत्ति पड़ने पर भगवान श्रीहरि का स्‍मरण करना चाहिये।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा विचारकर द्रौपदी ने बार-बार ‘गोविन्‍द’ और ‘कृष्‍ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्ति काल में अभय देने वाले लोक प्रपितामह नारायणस्‍वरूप भगवान श्रीकृष्‍ण का मन-ही-मीन चिन्‍तन किया। ‘गोविन्‍द! हे द्वारकावासी श्रीकृष्‍ण! हे गोपांगनाओं के प्राणवल्‍लभ केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्‍या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। सच्च्‍िदानन्‍द स्‍वरूप श्रीकृष्‍ण! महायोगिन्! विश्रमात्‍मन्! विश्‍वभावन! गोविन्‍द! कौरवों के बीच में कष्‍ट पाती हुई मुझे शरणागत अबला की रक्षा कीजियें’।

राजन्! इस प्रकार तीनों लोकों के स्‍वामी श्‍यामसुन्‍दर श्रीकृष्‍ण का बार-बार चिन्‍तन करके मानिनी द्रौपदी दुखी हो अंचल से मुँह ढककर जोर-जोर से रोने लगी। द्रुपद्रनन्दिनी की वह करूण पुकार सुनकर कृपालु श्रीकृष्‍ण गद्गद हो गये तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित हो पैदल ही दौड़ पड़े। यज्ञसेनकुमारी कृष्‍णा अपनी रक्षा के लिये श्रीकृष्‍ण, विष्णु, हरि और नर आदि भगवन्नामों को जोर-जोर से पुकार रही थी। इसी समय धर्मस्‍वरूप महात्‍मा श्रीकृष्‍ण ने अव्‍यक्‍तरूप से उसके वस्‍त्र में प्रवेश करके भाँति-भाँति के सुन्‍दर वस्त्रों द्वारा द्रौपदी को आच्‍छादित कर लिया।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः