अष्टषष्टितम (68) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कर्ण की बात सुनकर समस्त पाण्डव अपने-अपने उत्तरीय वस्त्र उतारकर सभा में बैठ गये। राजन्! तब दु:शासन ने उस भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र बलपूर्वक पकड़कर खींचना प्रारम्भ किया। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब वस्त्र खींचा जाने लगा, तब द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया। द्रौपदी ने मन-ही-मन कहा- मैंने पूर्वकाल में महात्मा वसिष्ठ जी की बतायी हुई इस बात को अच्छी तरह समझा है कि भारी विपत्ति पड़ने पर भगवान श्रीहरि का स्मरण करना चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा विचारकर द्रौपदी ने बार-बार ‘गोविन्द’ और ‘कृष्ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्ति काल में अभय देने वाले लोक प्रपितामह नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का मन-ही-मीन चिन्तन किया। ‘गोविन्द! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण! हे गोपांगनाओं के प्राणवल्लभ केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। सच्च्िदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगिन्! विश्रमात्मन्! विश्वभावन! गोविन्द! कौरवों के बीच में कष्ट पाती हुई मुझे शरणागत अबला की रक्षा कीजियें’। राजन्! इस प्रकार तीनों लोकों के स्वामी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का बार-बार चिन्तन करके मानिनी द्रौपदी दुखी हो अंचल से मुँह ढककर जोर-जोर से रोने लगी। द्रुपद्रनन्दिनी की वह करूण पुकार सुनकर कृपालु श्रीकृष्ण गद्गद हो गये तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित हो पैदल ही दौड़ पड़े। यज्ञसेनकुमारी कृष्णा अपनी रक्षा के लिये श्रीकृष्ण, विष्णु, हरि और नर आदि भगवन्नामों को जोर-जोर से पुकार रही थी। इसी समय धर्मस्वरूप महात्मा श्रीकृष्ण ने अव्यक्तरूप से उसके वस्त्र में प्रवेश करके भाँति-भाँति के सुन्दर वस्त्रों द्वारा द्रौपदी को आच्छादित कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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