महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 98-112

पंचम (5) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

Prev.png

महाभारत: सभा पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 98-112 का हिन्दी अनुवाद


  • तीनों वेद ही जिस के मूल हैं और पूर्व पुरुषों ने जिसका आचरण किया है, उस धर्म का अनुष्ठान करने के लिये तुम अपने पूर्वजों ही भाँति प्रयत्नशील तो रहते हो? धर्मानुकूल कर्म में ही तुम्हारी प्रवृत्ति तो रहती है? (98)
  • क्या तुम्हारे महल में तुम्हारी आँखों के सामने गुणवान ब्राह्मण स्वादिष्ट और गुणकारक अन्न भोजन करते हैं? और भोजन के पश्चात उन्हें दक्षिणा दी जाती है? (99)
  • अपने मन को वश में करके एकाग्रचित्त हो वाजपेय और पुण्डरीक आदि सभी यज्ञ-यागों का तुम पूर्ण रूप से अनुष्ठान करने का प्रयत्न तो करते हो न? (100)
  • जाति-भाई, गुरुजन, वृद्ध पुरुष, देवता, तपस्वी, चैत्यवृक्ष[1] आदि तथा कल्याणकारी ब्राह्मणों को नमस्कार तो करते हो न? (101)
  • निष्पाप नरेश! तुम किसी के मन में शोक या क्रोध तो नहीं पैदा करते ? तुम्हारे पास कोई मनुष्य हाथ में मंगल-सामग्री लेकर सदा उपस्थित रहता है न? (102)
  • पापरहित युधिष्ठिर! अब तक जैसा बतलाया गया है, उसके अनुसार ही तुम्हारी बुद्धि और वृत्ति[2] हैं न? ऐसी धर्मानुकूल बुद्धि और वृत्ति आयु तथा यश को बढ़ाने-वाली एवं धर्म, अर्थ तथा काम को पूर्ण करने वाली है। (103)
  • जो ऐसी बुद्धि के अनुसार बर्ताव करता है, उसका राष्ट्र कभी संकट में नहीं पड़ता। वह राजा सारी पृथ्वी को जीतकर बड़े सुख से दिनों दिन उन्नति करता है। (104)
  • कहीं ऐसा तो नहीं होता कि शास्त्रकुशल विद्वानों का संग न करने वाले तुम्हारे मूर्ख मन्त्रियों ने किसी विशुद्ध हृदय-वाले श्रेष्ठ एवं पवित्र पुरुष पर चोरी का अपराध लगाकर उसका सारा धन हड़प लिया हो ? और फिर अधिक धन के लोभ से वे उसे प्राणदण्ड देते हों ? (105)
  • नरश्रेष्ठ! कोई ऐसा दुष्ट चोर जो चोरी करते समय गृहरक्षकों, द्वारा देख लिया गया और चोरी के माल सहित पकड़ लिया गया हो, धन के लोभ से छोड़ तो नहीं दिया जाता? (106)
  • भारत! तुम्हारे मन्त्री चुगली करने वाले लोगों के बहकावे में आकर विवेक शून्य हो किसी धनी के या दरिद्र के थोड़े समय में ही अचानक पैदा हुए अधिक धन को मिथ्यादृष्टि से तो नहीं देखते? या उनके बढ़े हुए धन को चोरी आदि से लाया हुआ तो नहीं मान लेते ? (107)
  • युधिष्ठिर! तुम नास्तिकता, झूठ, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानियों का संग न करना, आलस्य, पाँचों इन्द्रियों-के विषयों में आसक्ति, प्रजाजनों पर अकेले ही विचार करना, अर्थशास्त्र को न जानने वाले मूर्खों के साथ विचार-विमर्श, निश्चित कार्यों के आरम्भ करने में विलम्ब या टालमटोल, गुप्त मन्त्रणा को सुरक्षित न रखना, मांगलिक उत्सव आदि न करना तथा एक साथ ही सभी शत्रुओं पर चढ़ाई कर देना- इन राज सम्बन्धी चौदह दोषों का त्याग तो करते हो न? क्योंकि जिनके राज्य की जड़ जम गयी है, ऐसे राजा भी इन दोषों के कारण नष्ट हो जाते हैं। (108-110)
  • क्या तुम्हारे वेद सफल हैं ? क्या तुम्हारा धन सफल है? क्या तुम्हारी स्त्री सफल है? और क्या तुम्हारा शास्त्र-ज्ञान सफल है? (111)
  • युधिष्ठिर ने पूछा - देवर्षें! वेद कैसे सफल होते हैं, धन की सफलता कैसे होती हे ? स्त्री की सफलता कैसे मानी गयी है तथा शास्त्र ज्ञान कैसे सफल होता है? (112)

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पीपल
  2. विचार और आचार

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः