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महाभारत: सभा पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 113-129 का हिन्दी अनुवाद
- नारद जी ने कहा- राजन! वेदों की सफलता अग्नि होत्र से होती है, दान और भोग से ही धन सफल होता है, स्त्री का फल है- रति और पुत्र की प्राप्ति तथा शास्त्र ज्ञान का फल है, शील और सदाचार। (113)
- वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! यह कहकर महातपस्वी नारद मुनि ने धर्मात्मा युधिष्ठिर से पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। (114)
- नारद जी ने पूछा - राजन! कर वसूलने का काम करने वाले तुम्हारे कर्मचारी लोग दूर से लाभ उठाने के लिये आये हुए व्यापारियों से ठीक-ठीक कर वसूल करते हैं न?[1] (115)
- महाराज! वे व्यापारी लोग आपके नगर और राष्ट्र में सम्मानित हो लिये बिक्री के लिये उपयोगी सामान लाते हैं न! उन्हें तुम्हारे कर्मचारी छल से ठगते तो नहीं? (116)
- तात! तुम सदा धर्म और अर्थ के ज्ञाता एवं अर्थशास्त्र के पूरे पण्डित बड़े-बूढ़े लोगों की धर्म और अर्थ से युक्त बातें सुनते रहते हो न? (117)
- क्या तुम्हारे यहाँ खेती से उत्पन्न होने वाले अन्न तथा फल-फूल एवं गौओं से प्राप्त होने वाले दूध, घी आदि में से मधु[2] और घृत आदि धर्म के लिये ब्राह्मणों को जाते हैं? (118)
- नरेश्वर! क्या तुम सदा नियम से सभी शिल्पियों को व्यवस्थापूर्वक एक साथ इतनी वस्तु-निर्माण की साम्रगी दे देते हो, जो कम-से-कम चौमासे भर चल सके। (119)
- महाराज! क्या तुम्हें किसी के किये हुए उपकार का पता चलता है? क्या तुम उस उपकारी की प्रशंसा करते हो और साधु पुरुषों से भरी हुई सभा के बीच उस उपकारी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसका आदर-सत्कार करते हो? (120)
- भरतश्रेष्ठ! क्या तुम संक्षेप से सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले सभी सूत्र ग्रन्थ- हस्तिसूत्र, अश्वसूत्र एवं रथसूत्र आदि संग्रह[3] करते रहते हो? (121)
- भरत कुलभूषण! क्या तुम्हारे घर पर धनुर्वेद-सूत्र, यन्त्र-सूत्र[4] और नागरिक[5] सूत्र का अच्छी तरह अभ्यास किया जाता है? (122)
- निष्पाप नरेश! तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र[6], वेदोक्त दण्ड-विधान तथा शत्रुओं का नाश करने वाले सब प्रकार के विषप्रयोग ज्ञात हैं न? (123)
- क्या तुम अग्नि, सर्प, रोग तथा राक्षसों के भय से अपने सम्पूर्ण राष्ट्र की रक्षा करते हो ? (124)
- धर्मज्ञ! क्या तुम अंधों, गूँगों, पंगुओं अंगहीनों और बन्धु-बान्धवों से रहित अनाथों तथा संन्यासियों का भी पिता की भाँति पालन करते हो? (125)
- महाराज! क्या तुमने निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, कठोरता और दीर्घसूत्रता- इन छः दोषों को पीछे कर दिया[7] है? (126)
- वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुरुश्रेष्ठ महात्मा राजा युधिष्ठिर ने ब्रह्मा के पुत्रों में श्रेष्ठ नारद जी का यह वचन सुनकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम एवं अभिवादन किया और अत्यन्त संतुष्ट हो देवस्वरूप नारद जी से कहा। (127)
- युधिष्ठिर बोले- देवर्षे! आपने जैसा उपदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। आपके इस प्रवचन से मेरी प्रज्ञा और भी बढ़ गयी है। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर ने वैसा ही आचरण किया और इसी से समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य पा लिया। (128)
- नारद जी ने कहा- जो राजा इस प्रकार चारों वर्णों[8] की रक्षा में संलग्न रहता है, वह इस लोक में अत्यन्त सुख पूर्वक विहार करके अन्त में देवराज इन्द्र के लोक में जाता है। (129)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में नारद जी के द्वारा प्रश्न के व्याज से राजधर्म का उपदेश विषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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