अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 14 का हिन्दी अनुवाद
तदनन्तर महाबाहु परशुराम ने प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करके सौ वर्षों तक सौभ नामक विमान पर बैठे हुए राजा शाल्व के साथ युद्ध किया। भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तदनन्तर सुन्दर रथ पर बैठकर सौभ विमान के साथ युद्ध करने वाले शक्तिशाली वीर भृगुश्रेष्ठ परशुराम ने गीत गाती हुई नग्निका[1] कुमारियों के मुख से यह सुना- ‘राम! राम! महाबाहो! तुम भृगुवंशी की कीर्ति बढ़ाने वाले हो, अपने सारे अस्त्र शस्त्र नीचे डाल दो। तुम सौभ विमान का नाश नहीं कर सकोगे। भयभीतों को अभय देने वाले चक्रधारी गदापाणि भगवान श्रीविष्णु प्रद्युम्न और साम्ब को साथ लेकर युद्ध में सौभ विमान का नाश करेंगे।' यह सुनकर पुरुषसिंह परशुराम उसी समय वन को चल दिये। राजन्! वे महायशस्वी मुनि कृष्णावतार के समय की प्रतीक्षा करते हुए अपने सारे अस्त्र शस्त्र, रथ, कवच, आयुध बाण, परशु और धनुष जल में डालकर बड़ी भारी तपस्या में लग गये। शत्रुओं का नाश करने वाले धर्मात्मा परशुराम ने लज्जा, प्रज्ञा, श्री, कीर्ति और लक्ष्मी- इन पाँचों का आश्रय लेकर अपने पूर्वोक्त रथ को त्याग दिया। आदि काल में जिसकी प्रवृत्ति हुई थी, उस काल का विभाग करके भगवान परशुराम ने कुमारियों की बात पर श्रद्धा होने के कारण ही सौभ विमान का नाश नहीं किया, असमर्थता के कारण नहीं। जमदग्निनन्दन परशुराम के नाम से विख्यात वे महर्षि, जो विश्वविदित ऐश्वर्यशाली महर्षि हैं, वे इन्हीं श्रीकृष्ण के अंश है, जो इस समय तपस्या कर रहे हैं। राजन्! अब महात्मा भगवान विष्णु के साक्षात् स्वरूप श्रीराम के अवतार का वर्णन सुनो, जो विश्वामित्र मुनि को आगे करके चलने वाले थे। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अविनाशी भगवान महाबाहु विष्णु ने अपने आपको चार स्वरूपों में विभक्त करके महराज दशरथ के सकाश से अवतार ग्रहण किया था। वे भगवान सूर्य के समान तेजस्वी राजकुमार लोक में श्रीराम के नाम से विख्यात हुए। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जगत को प्रसन्न करने तथा धर्म की स्थापना के लिये ही महायशस्वी सनातन भगवान विष्णु वहाँ प्रकट हुए थे। मनुष्यों के स्वामी भगवान श्रीराम को साक्षात् सर्वभूतपति श्रीहरि का ही स्वरूप बतलाया जाता है। भारत! उस समय विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने के कारण राक्षस सुबाहु श्रीरामचन्द्र जी के हाथों मारा गया और मारीच नामक राक्षस को भी बड़ी चोट पहुँची। परम बुद्धिमान विश्वामित्र मुनि ने देवशत्रु राक्षसों का वध करने के लिये श्रीरामचन्द्र जी को ऐसे-ऐसे दिव्यास्त्र प्रदान किये थे, जिनका निवारण करना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसमें ऋतुधर्म (राजस्वलावस्था) का प्रादुर्भाव न हुआ हो, उन्हें नग्निका कहते हैं।
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