एकत्रिंश (31) अध्याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 74/3 का हिन्दी अनुवाद
देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य ये सब मिलकर भी युद्ध में अर्जुन को परास्त नहीं कर सकते। उन्होंने खाण्डव वन को जलाकर अग्निदेव को तृप्त किया है। देवताओं सहित इन्द्र को वेगपूर्वक पराजित करके उन्होंने अग्निदेव को संतुष्ट किया और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त किय हैं। महाराज! उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा को पत्नीरूप में प्राप्त किया है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ थी। राजन्! अर्जुन के छोटे भाई नकुल नाम से विख्यात हैं, जो इस जगत में मूर्तिमान कामदेव के समान दर्शनीय हैं। नकुल के छोटे भाई महातेजस्वी सहदेव के नाम से विख्यात हैं। माननीय महाराज! उन्हीं सहदेव ने मुझे यहाँ भेजा है। मेरा नाम घटोत्कच है। मैं भीमसेन का बलावान् पुत्र हूँ। मेरी सौभाग्यशालिनी माता का नाम हिडिम्बा है। वे राक्षस कुल की कन्या हैं। मैं कुन्तीपुत्रों का उपकार करने के लिये ही इस पृथ्वी पर विचरता हूँ। महाराज युधिष्ठिर सम्पूर्ण भूमण्डल के शासक हो गया हैं। उन्होंने क्रतुश्रेष्ठ राजसूय का अनुष्ठान करने की तैयारी की है। उन्हीं महाराज ने अपने सब भाईयों को कर वसूल करने के लिये सब दिशाओं में भेजा है। वृष्णिवीर भगवान श्रीकृष्ण के साथ धर्मराज ने जब अपने भाइयों को दिग्विजय के लिये आदेश दिया, तब महाबली अर्जुन कर वसूल करने के लिय तुरंत उत्तर दिशा की ओर चल दिये। उन्होंने लाख योजन की यात्रा करके सम्पूर्ण राजाओं को युद्ध में हराया है और सामना करने के लिये आये हुए विपक्षियों को वेगपूर्वक मारा है। जितेन्द्रिय अर्जुन ने स्वर्ग के द्वार तक जाकर प्रचुर रत्न राशि प्राप्त की है। नाना प्रकार के दिव्य अश्व उन्हें भेंट में मिले हैं। इस प्रकार भाँति-भाँति के धन लाकर उन्होंने धर्मपुत्र युधिष्ठिर की सेवा में समर्पित किये हैं। राजेन्द्र! युधिष्ठिर के दूसरे भाई भीमसेन ने पूर्व दिशा में जाकर उसे बलपूर्वक जीता है और वहाँ के राजाओं को अपने वश में करके पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को बहुत धन अर्पित किया है।। नकुल कर लेने के लिये पश्चिम दिशा की ओर गये हैं और सहदेव सम्पूर्ण राजाओं को जीतते हुए दक्षिण दिशा में बढ़ते चले आये हैं। राजेन्द्र! उन्होंने बड़े सत्कारपूर्वक मुझे आपके यहाँ राजकीय कर देने के लिये संदेश भेजा है। महाराज! पाण्डवों का यह चरित्र मैंने अत्यन्त संक्षेप में आपके समक्ष रखा है। आप धर्मराज युधिष्ठिर की ओर देखिए, पवित्र करने वाले राजसूय यज्ञ तथा जगदीश्वर भगवान श्रीहरि की ओर भी ध्यान दीजिये। धर्मज्ञ नरेश! इन सबकी ओर दृष्टि रखते हुए आपको मुझे कर देना चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! घटोत्कच की वह बात सुनकर धर्मात्मा राक्षसराज विभीषण अपने मन्त्रियों के साथ बड़े प्रसन्न हुए। विभीषण ने प्रेमपर्वूक ही उनका शासन स्वीकार कर लिया। शक्तिशाली एवं बुद्धिमान विभीषण ने उसे काल का ही विधान समझा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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