महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 298 श्लोक 15-26

अष्‍अनवत्‍यधिकद्विशततम (298) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍अनवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद

परंतु जिसकी बुद्धि विषयों में आसक्‍त हो जाती है, वह मनुष्‍य किसी तरह अपने हित की बात नही समझता। राजन्! जैसे मछली काँटे में गुँथे हुए मांस पर आकृष्ट होती है और दुख पाती है, उसी तरह वह सब प्रकार की वासनाओं से वासित चित्त के द्वारा विषयों की ओर आकृष्ट होता है और दुख भोगता है। जैसे शरीर के अंग-प्रत्‍यंग एक-दूसरे के आश्रित हैं, उसी प्रकार यह मर्त्‍यलोक स्त्री-पुत्र और पशु आदि का समुदाय आपस में एक-दूसरे पर अवलम्बित है।

यह संसार केले के भीतरी भाग के समान निस्‍सार है। जैसे नौका पानी में डूब जाती है, उसी प्रकार यह सब कुछ काल के प्रवाह में‍ निमग्‍न हो जाता है। पुरुष के लिये धर्म करने का कोई विशेष समय निश्चित नहीं है; क्‍योंकि मृत्‍यु किसी की बाट नहीं जोहती। जब मनुष्‍य सदा मौत के मुख में ही है, तब नित्‍य-निरन्‍तर धर्म का आचरण करते रहना ही उसके लिये शोभा की बात है। जैसे अन्‍धा प्रतिदिन के अभ्‍यास से ही सावधानी के साथ बाहर से अपने घर में आ जाता है, उसी प्रकार विवेकी मनुष्‍य योगयुक्‍त चित्‍त के द्वारा उस परम गति को प्राप्‍त कर लेता है।

जन्‍म में मृत्‍यु की स्थिति बतायी गयी है और मृत्‍यु में जन्‍म निहित है। जो मोक्ष-धर्म को नहीं जानता, वह अज्ञानी मनुष्‍य संसार में आबद्ध होकर जन्‍म-मृत्‍यु के चक्र में घूमता रहता है; किंतु ज्ञानमार्ग से चलने वाले को इहलोक और परलोक में भी सुख मिलता है। कर्मों का विस्‍तार क्‍लेशयुक्‍त होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्म-विस्‍तार परार्थ हैं अर्थात मन और इन्द्रियों की तृप्ति के लिये हैं; परंतु त्‍याग अपने लिये हितकर माना गया है। जैसे (पानी से निकालते समय) कमल की नाल में लगी हुई कीचड़ पानी से तुरंत धुल जाती है, उसी प्रकार त्‍यागी पुरुष का आत्‍मा मन के द्वारा संसार बन्‍धन से मुक्‍त हो जाता है। मन आत्‍मा को योग की ओर ले जाता है। योगी इस मन को योगयुक्‍त (आत्‍मा में लीन) करता है। इस प्रकार जब वह योग में सिद्धि प्राप्‍त कर लेता है, तब वह उस परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेता है। जो पर के लिये अर्थात इन बाह्यइन्द्रियों की तृप्ति के लिये विषयभोगों में प्रवृत होकर इसे अपना मुख्‍य कार्य समझता है, वह अपने वास्‍तविक कर्तव्‍य से च्‍युत हो जाता है। इहलोक में बुद्धिमान हो या मूढ़, उसकी आत्‍मा अपने किये हुए कर्मों के अनुसार ही नरक को, पशु-पक्षी आदि योनियों को, स्‍वर्ग को और परम गति को प्राप्‍त होती है। जैसे पके हुए मिट्टी के बर्तन में रखा हुआ जल आदि तरल पदार्थ न तो छूता है और न नष्ट ही होता है, उसी प्रकार तपस्‍या से तपा हुआ सूक्ष्‍म शरीर ब्रह्मलोक तक के विषयों का अनुभव करता है। जो मनुष्‍य शब्‍द, स्‍पर्श आदि विषयों का उपभोग करता है, वह निश्‍चय ही ब्रह्मानन्‍द के अनुभव से वंचित्त रह जायगा, परंतु जो विषयों का परित्‍याग करता है, वह अवश्‍य ही ब्रह्मानन्‍द के अनुभव में समर्थ हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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