महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 4

द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम (222) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 4 का हिन्दी अनुवाद


अत: महाराज कुन्‍तीनन्‍दन! तुम भी ज्ञानयोग के साधन में तत्‍पर हो जाओ। ऐसा ज्ञान ही सम्‍पूर्ण दु:खों का विनाश करने वाला है। जो लोग महान दु:ख के आकर बने हुए हैं, उन मनुष्‍यों के परित्राण के लिये पूर्वकाल में पुराण पुरुष महात्‍मा महामुनि शिरोमणि नारायण ऋषि ने इस ज्ञान को प्रकट किया था, यह अविनाशी है।

युधिष्ठिर ने पूछा- भारत! इस लोक में जो यह शुभ अथवा अशुभ कर्म होता है, वह पुरुष को उसके सुख-दु:खरूप फल भोगने मे लगा ही देता है; परंतु पुरुष उस कर्म का कर्ता है या नहीं, इस विषय में मुझे संदेह है; अत: पितामह! मैं आपके द्वारा इसका तत्त्वयुक्‍त समाधान सुनना चाहता हूँ।

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में विज्ञ इन्‍द्र और प्रह्लाद के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। प्रह्लाद जी के मन में किसी विषय के प्रति आसक्ति नहीं थी। उनके सारे पाप धुल गये थे। वे कुलीन और बहुत विद्वान् थे। वे गर्व और अहंकार से रहित थे। वे धर्म की मर्यादा के पालन में तत्‍पर और शुद्ध सत्त्वगुण में स्थित रहते थे। निन्‍दा और स्‍तुति को समान समझते, मन और इन्द्रियों को काबू में रखते और एकान्‍त स्‍थान में निवास करते थे। उन्‍हें चराचर प्राणियों की उत्‍पत्ति और विनाश का ज्ञान था। अप्रिय की प्राप्ति में क्रोधयुक्‍त तथा प्रिय की प्राप्ति होने पर हर्षयुक्‍त नहीं होते थे। मिट्टी के ढेले और सुवर्ण दोनों में उनकी समानदृष्टि थी। वे ज्ञानस्‍वरूप कल्‍याणमय परमात्‍मा के ध्‍यान में स्थित और धीर थे। उन्‍हें परमात्‍मतत्त्व का पूर्ण निश्‍चय हो गया था। उन्‍हें परावरस्‍वरूप पूर्ण निश्‍चय हो गया था। उन्‍हें परावरस्‍वरूप ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान था। वे सर्वज्ञ, सम्‍पूर्णभूत प्राणियों में समदर्शी एवं जितेन्द्रिय थे। वे भगवान नारायण के प्रिय भक्‍त और सदा उन्‍हीं के चिन्‍तन में तत्‍पर रहने वाले थे।

हिरण्‍यकशिपु नन्‍दन प्रह्लाद जी को एकान्‍त में बैठकर परमात्‍मा श्रीहरि का ध्‍यान करते देख इन्‍द्र उनकी बुद्धि और विचार को जानने की इच्‍छा से उनके निकट जाकर इस प्रकार बोले। ‘दैत्‍यराज! संसार में जिन गुणों को पाकर कोई भी पुरुष सम्‍मानित हो सकता है, उन सबको मैं आपके भीतर स्थिरभाव से स्थित देखता हूँ। ‘आपकी बुद्धि बालकों के समान राग-द्वेष से रहित दिखायी देता है। आप आत्‍मा का अनुभव करते हैं, इसलिये आपकी ऐसी स्थिति है; अत: मैं पूछता हूँ कि इस जगत में आप किसको आत्‍मज्ञान का सर्वश्रेष्ठ साधन मानते हैं? आप रस्सियों से बाँधे गये, अपने राज्‍य से भ्रष्ट हुए और शत्रुओं के वश में पड़ गये थे। आप अपनी राज्‍यलक्ष्‍मी से वंचित हो गये। प्रह्लाद जी! ऐसी शोचनीय स्थिति में पड़ जाने पर भी आप शोक नहीं कर रहे हैं? ‘प्रहलाद जी! आप अपने ऊपर संकट आया देखकर भी निश्चिन्‍त कैसे हैं? दैत्‍यराज! आपकी यह स्थिति आत्‍मज्ञान के कारण है या धैर्य के कारण?’ इन्‍द्र के इस प्रकार पूछने पर परमात्‍मतत्त्व को निश्चितरूप से जानने वाले धीर बुद्धि प्रह्लाद जी ने अपने ज्ञान का वर्णन करते हुए मधुर वाणी में कहा।

प्रहलाद जी बोले- देवराज! जो प्राणियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानता, उसी को अविवेक के कारण स्‍तम्‍भ (जडता या मोह) होता है। जिसे आत्‍मा का साक्षात्‍कार हो गया है, उसको कभी मोह नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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