द्वयाधिकद्विशततम (202) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद
परंतु उन्ही काठों का युक्तिपूर्वक मन्थन करने पर जैसे अग्नि और धूम दोनों ही देखने में आते हैं, उसी प्रकार योग के द्वारा मन और इन्द्रियों को बुद्धि के सहित समाहित कर लेनेवाला बुद्धिमान ज्ञानी पुरुष इन सबसे परम श्रेष्ठ उस ज्ञान को और आत्मा को साक्षात कर लेता है। जैसे स्वप्न में मनुष्य अपने शरीर के कटे हुए अंग को अपने से अलग और पृथ्वी पर पड़ा देखता है, उसी प्रकार दस इन्द्रिय, पाँच प्राण तथा मन और बुद्धि- इन सत्रह तत्त्वों के समुदाय का अभिमानी शुद्ध मन और बुद्धिवाला मनुष्य शरीर को अपने से पृथक् जाने। जो ऐसा नहीं जानता, वही एक शरीर से दूसरे शरीर में जन्म लेता रहता है। आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है। वह इसके उत्पत्ति, वृद्धि, क्षय और मृत्यु आदि दोषों से कभी लिप्त नहीं होता। किंतु अज्ञानी मनुष्य पूर्वकृत कर्मों के फल के संबंध से इस ऊपर बताये हुए सूक्ष्म शरीर के सहित दूसरे शरीर में चला जाता है। कोई भी इन चर्मचक्षुओं के द्वारा आत्मा के स्वरूप को नहीं देख सकता। अपनी त्वचा से उसका स्पर्श भी नहीं कर सकता। भाव यह कि इन्द्रियों द्वारा आत्मा को जानने का कोई कार्य नहीं किया जा सकता। वे इन्द्रियाँ उसे नही देखती; पर वह आत्मा उन सबको देखता है। जैसे कोई लोहा आदि पदार्थ समीप जलती हुई आग की गर्मी से लाल रंग का हो जाता है और उसमें दाहकता का गुण भी थोड़ी मात्रा में आ जाता है; परंतु वह उसके वास्तविक आन्तरिक रूप और गुण को धारण नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा का स्वरूप चैतन्यमात्र इन्द्रियादि के समूह शरीर में दिखायी देता है, किंतु उनका समुदायभूत शरीर वास्तव में चेतन नहीं होता। एवं समीपस्थ वस्तु का जैसा रूप होता है वैसा ही रूप उस अग्नि का भी प्रतीत होने लगता है। इसी तरह मनुष्य अपने दृश्य शरीर का त्याग करके जब दूसरे अदृश्य शरीर में प्रवेश करता है, तब पहले के स्थूल शरीर को पच महाभूतों में मिलने के लिये छोड़कर दूसरे शरीर का आश्रय ले उसी को अपना स्वरूप मानकर धारण करता है। देहाभिमानी जीव जब शरीर छोड़ता है, तब उस शरीर में जो आकाश का अंश होता है, वह सब प्रकार से आकाश में, वायु में, अग्नि का अंश अग्नि में, जल का अंश जल में तथा पृथ्वी का अंश पृथ्वी में विलीन हो जाता है। किंतु इन नाना भूतों के आश्रित जो श्रोत्र आदि तत्त्व हैं, वे विलीन न होकर अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं और दूसरे शरीर में जाकर पाँचो भूतों का आश्रय ले लेते हैं। आकाश से श्रोत्रेन्द्रिय (और उसका विषय शब्द), पृथ्वी से घ्राणेन्द्रिय (और उसका विषय गन्ध) होता है तथा रूप और विपाक वे दोनों (एवं नेत्र-इन्द्रिय) ये सब तजोमय हैं। स्वेद एवं रस (और रसना) इन्द्रिय– ये जल के आश्रित हैं। एवं स्पर्श करने वाली इन्द्रिय और स्पर्श यह वायुस्वरूप है। पाँचों इन्द्रियों के पाँचों विषय तथा पाँचो इन्द्रियाँ भी पंच सूक्ष्म महाभूतों में निवास करते हैं, ये शब्द आदि विषय, आकाश आदि भूत तथा श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ सब के सब मन के अनुगामी हैं। मन बुद्धि का अनुसरण करता है और बुद्धि आत्मा का आश्रय लेकर रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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