महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 33-40

चतुर्दशम (14) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व चतुर्दशम अध्यायः श्लोक 33-40 का हिन्दी अनुवाद


चारुहासिनी! यदि तुम चाहो तो मैं पहली स्त्रियों को त्याग दूँगा अथवा वे सब तुम्हारी दासी बनकर रहेंगी। सुन्दरि! सुमुखि! मैं स्वयं भी दासी की भाँति सदा तुम्हारे अधीन रहूँगा’।

द्रौपदी ने कहा- सूतपुत्र! तुम मुझे चाहते हो। छिः छिः; मुझसे इस तरह की याचना करना तुम्हारे लिये कदापि योग्य नहीं है। एक तो मेरी जाति छोटी है, दूसरे मैं सैरन्ध्री (दासी) हूँ, वीभत्स वेष वाली स्त्री हूँ तथा केश सँवारने का काम करने वाली एक तुच्छ सेविका हूँ। बुद्धिमान पुरुष अपनी पत्नी को ही अनुकूल बनाये रखने के लिये उत्तम यत्न करता है। अपनी स्त्री में अनुराग रखने वाला मनुष्य शीघ्र ही कल्याण का भागी होता है। मनुष्य को चाहिये कि वह पाप में लिप्त न हो, अपयश का पात्र न बने, अपनी ही पत्नी के प्रति अनुराग रखना परम धर्म है। वह मृत पुरुष के लिये भी कल्याणकारी होता है, इसमें संशय नहीं है। अपनी जाति की स्त्रियाँ मनुष्य के लिये इहलोक और परलोक में भी हितकारिणी होती हैं। वे प्रेतकार्य (अन्त्येष्टि-संस्कार) करती और जलांजलि देकर मृतात्मा को तृप्त करती हैं। उनके इस कार्य को मनीषी पुरुषों ने अक्षय, धर्मसंगत एवं स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला बताया है।

अपनी जाति की स्त्री से उत्पन्न हुए पुरुष कुल में सम्मानित होते हैं। सभी प्राणियों को अपनी ही पत्नी प्यारी होती है। इसलिये तुम भी ऐसा करके धर्म के भागी बनो। परस्त्री लम्पट पुरुष कभी कल्याण नहीं देखता। सबसे बड़ी बात यह है कि मैं दूसरे की पत्नी हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। इस समय मुझसे इस तरह की बातें करना तुम्हारे लिये किसी तरह उचित नहीं है। जगत् के सब प्राणियों के लिये अपनी ही स्त्री प्रिय होती है। तुम धर्म का विचार करो। परायी स्त्री में तुम्हें कभी किसी तरह भी मन नहीं लगाना चाहिये। न करने योग्य अनुचित कर्मों को सर्वथा त्याग दिया जाये, यही श्रेष्ठ पुरुषों का व्रत है। झूठे विषयों में आसक्त होने वाला पापात्मा मनुष्य मोह में पड़कर भयंकर अपयश पाता है अथवा उसे बड़े भारी भय (मृत्यु) का सामना करना पड़ता है।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सैरन्ध्री के इस प्रकार समझाने पर भी कीचक को होश न हुआ। वह काम से मोहित हो रहा था। यद्यपि उस दुर्बुद्धि को यह मालूम था कि परायी स्त्री के स्पर्श से बहुत-से ऐसे दोष प्रकट हो जाते हैं, जिसकी सब लोग निन्दा करते हैं तथा जिनके कारण प्राणों से भी हाथ धोना पड़ता है; तो भी उस अजितेन्द्रिय तथा अत्यन्त दुर्बुद्धि ने द्रौपदी से इस प्रकार कहा- ‘वरारोहे! सुमुखि! तुम्हें इस प्रकार मेरी प्रार्थना नहीं ठुकरानी चाहिये। चारुहासिनी! मैं तुम्हारे लिये कामवेदना से पीड़ित हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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