चतुर्दशम (14) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व चतुर्दशम अध्यायः श्लोक 41-49 का हिन्दी अनुवाद
‘कल्याणि! जब सम्पूर्ण मनोरथों से सम्पन्न अनुपम भोग यहाँ भोगने के लिये तुम्हें सुलभ हो रहे हैं, तब तुम दासीपन में क्यों आसक्त हो? शुभानने! मैंने यह सम्पूर्ण राज्य तुम्हें अर्पित कर दिया। अब तुम्हीं इसकी स्वामिनी हो। वरारोहे! मुझे अपना लो और मेरे साथ उत्तमोत्तम भोगों का भोग करो’। कीचक के इस प्रकार अशुभ (पापपूर्ण) वचन कहने पर सती-साध्वी द्रौपदी ने उसकी उन ओछी बातों की निन्दा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया। सैरन्ध्री बोली- सुतपुत्र! तू आज इस प्रकार मोह के फंदे में न पड़। अपनी जान न गँवा। तुझे मालूम होना चाहिये कि पाँच भयंकर गंधर्व मेरी नित्य रक्षा करते हैं। वे गन्धर्व ही मेरे पति हैं। तू कदापि मुझे पा नहीं सकता। मेरे पति कुपित होकर तुझे मार डालेंगे; अतः सँभल जा। इस पापबुद्धि का त्याग कर दे। अपना सर्वनाश न करा। अरे! तू उस राह पर जाना चाहता है, जहाँ दूसरे पुरुष नहीं जा सकते। जैसे नदी के एक किनारे पर बैठा हुआ कोई मन्दबुद्धि अचेत बालक दूसरे किनारे पर तैरकर जाना चाहता हो, वैसा ही विनाशकारी कार्य तू भी करना चाहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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