महाभारत वन पर्व अध्याय 46 श्लोक 39-56

षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 39-56 का हिन्दी अनुवाद


‘शुभे! पवित्र मुसकान वाली उर्वशी! मैंने जो उस समय सभा में तुम्हारी ओर एकटक दृष्टि से देखा था, उसका एक विशेष कारण था, उसे सत्य बताता हूँ सुनो। यह आनंदमयी उर्वशी की पूरुवंश की जननी है, ऐसा समझकर मेरे नेत्र खिल उठे और इस पूज्य भाव को लेकर ही मैंने तुम्हें वहाँ देखा था। कल्याणमयी अप्सरा! तुम मेरे विषय में कोई अन्यथा भाव मन में न लाओ। तुम मेरे वंश की वृद्धि करने वाली हो, अतः गुरु से भी अधिक गौरवशालिनी हो’।

उर्वशी ने कहा- 'वीर देवराजनन्दन! हम सब अप्सराएं स्वर्गवासियों के लिये अनावृत हैं-हमारा किसी के साथ कोई पर्दा नहीं है। अतः तुम मुझे गुरुजन के स्थान पर नियुक्त न करो। पूरुवंश के कितने ही पोते-नाती तपस्या करके यहाँ आते हैं और वे हम सब अप्सराओं के साथ रमण करते हैं। इसमें उनका कोई अपराध नहीं समझा जाता। मानद! मुझ पर प्रसन्न होओ। मैं कामवेदना पीड़ित हूँ, मेरा त्याग न करो। मैं तुम्हारी भक्त हूँ और मदनाग्नि से दग्ध हो रही हूँ; अतः मुझे अंगीकार करो।'

अर्जुन ने कहा- 'वरारोहे! अनिन्दित! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस सत्य वचन को सुनो। ये दिशा, विदिशा तथा उनकी अधिष्ठात्री देवियां भी सुन लें। अनघे! मेरी दृष्टि में कुन्ती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पूरुवंश की जननी होने के कारण आज मेरे लिये परम गुरुस्वरूप हो। वरवर्णिनि! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम लौट जाओ। मेरी दृष्टि में तुम माता के समान पूजनीया हो और तुम्हें पुत्र के समान मानकर मेरी रक्षा करनी चाहिये।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुन्तीकुमार अर्जुन के ऐसा कहने पर उर्वशी क्रोध से व्याकुल हो उठी। उसका शरीर कांपने लगा और भौहें टेढ़ी हो गयीं। उसने अर्जुन को शाप देते हुए कहा। उर्वशी बोली- 'अर्जुन! तुम्हारे पिता इन्द्र के कहने से मैं स्वयं तुम्हारे घर पर आयी और कामबाण से घायल हो रही हूँ, फिर भी तुम मेरा आदर नहीं करते। अतः तुम्हें स्त्रियों के बीच में सम्मानरहित होकर नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। तुम नपुसंक कहलाओगे और तुम्हारा सारा आचार-व्यवहार हिजड़ों के ही समान होगा।' फड़कते हुए ओठों से इस प्रकार शाप देकर उर्वशी लंबी सांसें खींचती हुई पुनः शीघ्र ही अपने घर को लौट गयी।

तदनन्तर शत्रुदमन पाण्डुकुमार अर्जुन बड़ी उतावली के साथ चित्रसेन के समीप गये तथा रात में उर्वशी के साथ जो घटना जिस प्रकार घटित हुई, वह सब उन्होंने उस समय चित्रसेन को ज्यों का त्यों कह सुनायी। साथ ही उसके शाप देने की बात भी उन्होंने बार-बार दुहरायी। चित्रसेन ने भी सारी घटना देवराज इन्द्र से निवेदन की। तब इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन को बुलाकर एकान्त में कल्याणमय वचनों द्वारा सान्त्वना देते हुए मुसकराकर उनसे कहा- ‘तात! तुम सत्पुरुषों के शिरोमणि हो, तुम-जैसे पुत्र को पाकर कुन्ती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्र वाली है। महाबाहो! तुमने अपने धैर्य (इन्द्रियसंयम) के द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया है। मानद! उर्वशी ने तुम्हें शाप दिया है, वह तुम्हारे अभीष्ट अर्थ का साधक होगा।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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