महाभारत वन पर्व अध्याय 46 श्लोक 19-38

षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद


उर्वशी को आयी देख अर्जुन के नेत्र लज्जा से मुंद गये। उस समय उन्होंने उसके चरणों में प्रणाम करके उसका गुरुजनोचित सत्कार किया। अर्जुन बोले- 'देवि! श्रेष्ठ अप्सराओं में भी तुम्हारा सबसे ऊंचा स्थान है। मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। बताओ, मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैं तुम्हारा सेवक हूँ और तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के लिये उपस्थित हूँ।'

अर्जुन की यह बात सुनकर उर्वशी के होश-हवास गुम हो गये। उस समय उसने गन्धर्वराज चित्रसेन की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। उर्वशी ने कहा- 'पुरुषोत्तम! चित्रसेन ने मुझे जैसा संदेश दिया है और उसके अनुसार जिस उद्देश्य को लेकर में यहाँ आयी हूँ, वह सब मैं तुम्हें बता रही हूँ। देवराज इन्द्र के इस मनोरम निवास स्थान में तुम्हारे शुभागमन के उपलक्ष्य में एक महान् उत्सव मनाया गया। वह उत्सव स्वर्गलोक का सबसे बड़ा उत्सव था। उसमें रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार और वसुगण-सब का एक ओर से समागम हुआ था। नरश्रेष्ठ! महर्षि समुदाय, राजर्षिप्रवर, सिद्ध, चारण, यक्ष तथा बड़े-बड़े नाग-ये सभी अपने पद सम्मान और प्रभाव के अनुसार योग्य आसनों पर बैठे थे। इन सब के शरीर अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी थे और वे समस्त देवता अपनी अद्भुत समृद्धि से प्रकाशित हो रहे थे। विशाल नेत्रों वाले इन्द्रकुमार! उस समय गन्धवों द्वारा अनेक वीणाएँ बजायी जा रही थीं। दिव्य मनोरम संगीत छिड़ा हुआ था और सभी प्रमुख अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। कुरुकुलनन्दन पार्थ! उस समय तुम मेरी ओर निर्निमेष नयनों से निहार रहे थे। देवसभा में जब उस महोत्सव की समाप्ति हुई, तब तुम्हारे पिता की आज्ञा लेकर सब देवता अपने-अपने भवन को चले गये।

शत्रुदमन! इसी प्रकार आपके पिता से विदा लेकर सभी प्रमुख अप्सराएं तथा दूसरी साधारण अप्सराएं भी अपने-अपने घर को चली गयीं। कमलनयन! तदनन्तर देवराज इन्द्र का संदेश लेकर गन्धर्वप्रवर चित्रसेन मेरे पास आये और इस प्रकार बोले- ‘वरवर्णिनि! देवेश्वर इन्द्र ने तुम्हारे लिये एक संदेश देकर मुझे भेजा है। तुम उसे सुनकर महेन्द्र का, मेरा तथा मुझसे अपना भी प्रिय कार्य करो। सुश्रोणि! जो संग्राम में इन्द्र के समान पराक्रमी और उदारता आदि गुणों से सदा सम्पन्न हैं, उन कुन्तीनन्दन अर्जुन की सेवा तुम स्वीकार करो।’ इस प्रकार चित्रसेन ने मुझसे कहा था। अनघ! शत्रुदमन! तदनन्तर चित्रसेन और तुम्हारे पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं तुम्हारी सेवा के लिये तुम्हारे पास आयी हूँ। तुम्हारे गुणों ने मेरे चित्त को अपनी ओर खींच लिया है। मैं कामदेव के वश में हो गयी हूँ। वीर! मेरे हृदय में भी चिरकाल से यह मनोरथ चला आ रहा था।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! स्वर्गलोक में उर्वशी की यह बात सुनकर अर्जुन अत्यन्त लज्जा से गड़ गये और हाथों से दोनों कान मूंदकर बोले- ‘सौभाग्यशालिनि! भाविनि! तुम जैसी बात कह रही हो, उसे सुनना भी मेरे लिये बड़े दु:ख की बात है। वरानने! निश्चय ही तुम मेरी दृष्टि में गुरुपत्नियों के समान पूजनीय हो। कल्याणि! मेरे लिये जैसी महाभागा कुन्ती ओर इन्द्राणि शची हैं, वैसी ही तुम भी हो। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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